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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 6 के मन्त्र
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अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 12
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - विराड्गायत्री
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
46
यत्पु॒रा प॑रिवे॒षात्खा॒दमा॒हर॑न्ति पुरो॒डाशा॑वे॒व तौ ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । पु॒रा । प॒रि॒ऽवे॒षात् । खा॒दम् । आ॒ऽहर॑न्ति । पु॒रो॒डाशौ॑ । ए॒व । तौ ॥६.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्पुरा परिवेषात्खादमाहरन्ति पुरोडाशावेव तौ ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । पुरा । परिऽवेषात् । खादम् । आऽहरन्ति । पुरोडाशौ । एव । तौ ॥६.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब वे [गृहस्थ लोग] (पुरा) पहिले (परिवेषात्) परोसकर (खादम्) भोजन को (आहरन्ति) खाते हैं। [तब संन्यासी के लिये] (तौ) वे (पुरोडाशौ) दो पुरोडाश [मुनि अन्न की दो रोटियाँ] (एव) ही हैं ॥१२॥
भावार्थ
संन्यासी लोग बहुमूल्य आहारों को छोड़कर थोड़े मुनि अन्न, नीवार, कन्द आदि का भोजन करते हैं ॥१२॥ पुरोडाश का वर्णन मनु० अ० ६। श्लो० ११ में इस प्रकार है ॥ वासन्तशारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः स्वयमाहृतैः। पुरोडाशांश्चरूँश्चैव विधिवन्निर्वपेत्पृथक् ॥१॥ अपने हाथ से लाये हुए वसन्त और शरद् में उत्पन्न हुए पवित्र मुनियों के अन्नों से पुरोडाश और चरु को विधि के अनुसार अलग-अलग फैलावे [परोसे] ॥
टिप्पणी
१२−(यत्) यदा (पुरा) आदौ (परिवेषात्) परि+विष्लृ व्याप्तौ-घञ्। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी। परिवेषं भोजनार्थं पात्रे अन्नादेर्दानं समाप्य (खादम्) भोजनम् (आहरन्ति) खादन्ति (पुरोडाशौ) अ० ८।८।२२। मुन्यन्नरोटिकाविशेषौ-मनुः ६।११। (तौ) ॥
विषय
अतिथि के लिए 'बिछौना, स्नान, भोजन' आदि की व्यवस्था
पदार्थ
१. (यत्) = जो (कशिपु उपबर्हणम्) = [a bed] बिस्तरा वा तकिया (आहरन्ति) = प्राप्त कराते हैं, (ते परिधयः एव) = वे यज्ञ में परिधि नामक पलाश-दण्डों के समान हैं [A stick of a sacred tree like पलाश laid around the sacrificial fire]| २. (यत्) = जो (आञ्जन)-आँखों के लिए अञ्जन वा (अभ्यञ्जनम्) = शरीर-मालिश के लिए तेल, उबटन आदि (आहरन्ति) = लाते हैं, (तत् आज्यम् एव) = वह यज्ञ में लाया जानेवाला घृत ही है। (यत्) = जो (परिवेषात्) = घर के लोगों के लिए भोजन परोसने से (पुरा) = पूर्व ही अतिथि के लिए (खादम् आहरन्ति) = भोजन लाते हैं, तो (पुरोडाशौ एव) = वे यज्ञ की दो पुरोडाश आहुतियाँ ही हैं। ४. (यत्) = जो (अशनकृतं ह्वयन्ति) = भोजन बनानेवाले कुशल पुरुष को बुलाते हैं, (तत् हविष्कृतम् एवं ह्वयन्ति) = वह यज्ञ में चरु तैयार करनेवाले पुरुष को ही बुलाते हैं।
भावार्थ
अतिथि के लिए रात्रि में सोने के लिए बिछौना और प्रात: उठने पर स्नान-सामग्नी व तदनन्तर भोजनादि प्राप्त कराना-अतिथियज्ञ की ये सब क्रियाएँ देवयज्ञ की क्रियाओं के समान ही हैं।
भाषार्थ
(पुरा परिवेषात्) मुख्य भोजन परोसने से पहिले (यद्) जो (खादम्) खाने की वस्तु (आहरन्ति) आहार रूप में लाते हैं (तो) वे दो (पुरोडाशौ एव) ही हैं।
टिप्पणी
[पुरोडाशौ= तण्डुल को पीस कर भटूरों की सी गोलाकृति के दो खाद्य]
विषय
अतिथि-यज्ञ और देवयज्ञ की तुलना।
भावार्थ
(यत्) जो गृहस्थ के लोग (परिवेषात्) भोजन परोसने के (पुरा) पूर्व ही अतिथि के लिये (खादम्) खाने योग्य भोजन (आहरन्ति) लाते हैं वह यज्ञ में (पुरोडाशौ एव तौ) दोनों पुरोडाशों के समान ही है। और (यद् अशनकृतम्) जो अतिथि के लिये विशेष भोजन बनाने में चतुर पुरुष को (ह्वयन्ति) विशेष रूप से बुलाते हैं (तत्) वह एक प्रकार से यज्ञ में (हविष्कृतम् एव) हवि अर्थात् यज्ञ में चरु को तैयार करने हारे पुरुष को ही (ह्वयन्ति) बुलाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
‘सो विद्यात्’ इति षट् पर्यायाः। एकं सुक्तम्। ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिरुत विद्या देवता। तत्र प्रथमे पर्याये १ नागी नाम त्रिपाद् गायत्री, २ त्रिपदा आर्षी गायत्री, ३,७ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, ४ आसुरीगायत्री, ६ त्रिपदा साम्नां जगती, ८ याजुषी त्रिष्टुप्, १० साम्नां भुरिग बृहती, ११, १४-१६ साम्न्योऽनुष्टुभः, १२ विराड् गायत्री, १३ साम्नी निचृत् पंक्तिः, १७ त्रिपदा विराड् भुरिक् गायत्री। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atithi Yajna: Hospitality
Meaning
When they bring the appetizers before dinner, that is like soma juice for yajna.
Translation
What they bring as food for tasting before the regular meal (puradasau), that is, as if, the two sacrificial cakes of rice. .
Translation
The food that they bring for the guest before the general distribution represents two purodashas of yajna.
Translation
Whereas the householders eat nice food served beforehand, a Sanyasi is contented with two cakes of rice meal.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१२−(यत्) यदा (पुरा) आदौ (परिवेषात्) परि+विष्लृ व्याप्तौ-घञ्। पञ्चमीविधाने ल्यब्लोपे कर्मण्युपसंख्यानम्। वा० पा० २।३।२८। ल्यब्लोपे कर्मणि पञ्चमी। परिवेषं भोजनार्थं पात्रे अन्नादेर्दानं समाप्य (खादम्) भोजनम् (आहरन्ति) खादन्ति (पुरोडाशौ) अ० ८।८।२२। मुन्यन्नरोटिकाविशेषौ-मनुः ६।११। (तौ) ॥
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