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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - अतिथि सत्कार
    69

    यदा॑वस॒थान्क॒ल्पय॑न्ति सदोहविर्धा॒नान्ये॒व तत्क॑ल्पयन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । आ॒ऽव॒स॒थान् । क॒ल्पय॑न्ति । स॒द॒:ऽह॒वि॒र्धा॒नानि॑ । ए॒व । तत् । क॒ल्प॒य॒न्ति॒ ॥६.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदावसथान्कल्पयन्ति सदोहविर्धानान्येव तत्कल्पयन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । आऽवसथान् । कल्पयन्ति । सद:ऽहविर्धानानि । एव । तत् । कल्पयन्ति ॥६.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 1; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब वे [गृहस्थ लोग] (आवसथान्) निवासस्थानों को (कल्पयन्ति) बनाते हैं, (तत्) तब वे [अतिथि लोग] (सदोहविर्धानानि) यज्ञशाला और हवि [लेने-देने योग्य कर्मों] के स्थानों को (एव) ही (कल्पयन्ति) विचारते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    गृहस्थों के बनाये स्थानों में संन्यासी महात्मा विद्यालय, अद्भुतालय, बिजुली, तार आदि स्थानों का विचार करते हैं ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यत्) यदा (आवसथान्) उपसर्गे वसेः। उ० ३।११६। आ+वस निवासे-अथ। निवासान् (कल्पयन्ति) रचयन्ति (सदोहविर्धानानि) यज्ञगृहग्राह्यदातव्यकर्मस्थानानि (एव) (तत्) तदा (कल्पयन्ति) विचारयन्ति। समर्थयन्ति ॥

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    विषय

    आतिथ्य व स्वर्ग

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (तर्पणम्) = अतिथि के लिए तृप्तिकारक मधुपर्क आदि पदार्थ प्राप्त कराये जाते हैं और (यः एव) = जो (अग्रीषोमीय:) = अग्नि व सोम देवतावाला (पशः बध्यते) = पशु बाँधा जाता है, (सः एव सः) = वह तर्पण वह पशु ही हो जाता है। सिंह आदि अग्नितत्त्व प्रधान पशु हैं, तो गौ आदि सोमतत्त्व प्रधान। यज्ञों में दोनों प्रकार के ही पशु बाँधे जाते हैं। इसप्रकार यज्ञ में उपस्थित बालकों व युवकों को प्राणी-शास्त्र का ज्ञान खेल-खेल में ही हो जाता था। २. यत्-जो अतिथि के निवास के लिए (आवसथान् कल्पयन्ति) = उचित गृह बनाते हैं, (तत्) = वह एक प्रकार से (सदोहविर्धानानि) = [सदस] प्राचीन वंशगृह [सभास्थान] और हविर्धान नामक पात्रों को ही (कल्पयन्ति) = बनाते हैं। ३. (यत्) = जो अतिथि के लिए (उपस्तृणन्ति) = चारपाई या टाट बिछाते हैं, (तत् बहिः एव) = वह यज्ञ में कुशाओं का बिछौना ही है। ४. (यत् उपरिशयनम् आहरन्ति) = जो गद्दा लाकर चारपाई पर बिछाते हैं अथवा अपने से ऊँचे स्थान में अतिथि को सुलाते हैं तो (तेन) = उस अतिथि-सत्कार की क्रिया से स्(वर्ग लोकम् एव अवरुन्द्ध) = अपने लिए स्वर्गलोक को ही सुरक्षित कर लेते हैं [रोक लेते हैं]।

    भावार्थ

    अतिथि-सत्कार हमारे घरों को स्वर्ग-तुल्य बनाता है।

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    भाषार्थ

    (यद् आवसथान्) जो निवास स्थानों को (कल्पयन्ति) तय्यार करते हैं (तत्) वह (सदोहविर्धानानि एव) सदस् [बैठने का स्थान या सभागृह] और हवि के रखने के गृहों को ही (कल्पयन्ति) तय्यार करते हैं।

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    विषय

    अतिथि-यज्ञ और देवयज्ञ की तुलना।

    भावार्थ

    और (यत्) जो अतिथि के लिए (आवसथान्) निवास के निमित्त उचित गृह आदि को (कल्पयन्ति) बनाते हैं उसको आदर से नियत घरों में रखते हैं (तत्) वह एक प्रकार से यज्ञ में (सदोहविर्धानानि कल्पयन्ति) सदस्=प्राचीनवंश गृह और हविर्धान नामक शकट और पात्र की रचना करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ‘सो विद्यात्’ इति षट् पर्यायाः। एकं सुक्तम्। ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिरुत विद्या देवता। तत्र प्रथमे पर्याये १ नागी नाम त्रिपाद् गायत्री, २ त्रिपदा आर्षी गायत्री, ३,७ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, ४ आसुरीगायत्री, ६ त्रिपदा साम्नां जगती, ८ याजुषी त्रिष्टुप्, १० साम्नां भुरिग बृहती, ११, १४-१६ साम्न्योऽनुष्टुभः, १२ विराड् गायत्री, १३ साम्नी निचृत् पंक्तिः, १७ त्रिपदा विराड् भुरिक् गायत्री। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    When they arrange for his rest and comforts they arrange for the place of yajna and other preparations for it.

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    Translation

    The night’s lodgings (avasatha) they arrange (for guests), they are, as if, preparing the seat and shed for storing sacrificial provisions.

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    Translation

    When they arrange dwelling rooms for the guest, they really arrange the sacred chamber for the yajna and the car named as Shakata.

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    Translation

    Whereas the householders arrange dwelling rooms for the guests, they look for places fit for Brahmins to sit upon, and where provisions for a Yajna (sacrifice) are stored.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यत्) यदा (आवसथान्) उपसर्गे वसेः। उ० ३।११६। आ+वस निवासे-अथ। निवासान् (कल्पयन्ति) रचयन्ति (सदोहविर्धानानि) यज्ञगृहग्राह्यदातव्यकर्मस्थानानि (एव) (तत्) तदा (कल्पयन्ति) विचारयन्ति। समर्थयन्ति ॥

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