Loading...
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 17
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - त्रिपदा विराड्भुरिग्गायत्री सूक्तम् - अतिथि सत्कार
    60

    स्रुग्दर्वि॒र्नेक्ष॑णमा॒यव॑नं द्रोणकल॒शाः कु॒म्भ्यो वाय॒व्यानि॒ पात्रा॑णी॒यमे॒व कृ॑ष्णाजि॒नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्रुक् । दर्वि॑: । नेक्ष॑णम् । आ॒ऽयव॑नम् । द्रो॒ण॒ऽक॒ल॒शा: । कु॒म्भ्य᳡: । वा॒य॒व्या᳡नि । पात्रा॑णि । इ॒यम् । ए॒व । कृ॒ष्ण॒ऽअ॒जि॒नम् ॥६.१७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्रुग्दर्विर्नेक्षणमायवनं द्रोणकलशाः कुम्भ्यो वायव्यानि पात्राणीयमेव कृष्णाजिनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्रुक् । दर्वि: । नेक्षणम् । आऽयवनम् । द्रोणऽकलशा: । कुम्भ्य: । वायव्यानि । पात्राणि । इयम् । एव । कृष्णऽअजिनम् ॥६.१७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 1; मन्त्र » 17
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (शूर्पम्) सूप [छाज], (पवित्रम्) चालनी, (तुषाः) बुसी (ऋजीषा) सोम का फोक [नीरस वस्तु], (अभिसवनीः) मार्जन वा स्नान के पात्र, (आपः) [यज्ञ का] जल। (स्रुक्) स्रुचा [घी चढ़ाने का पात्र], (दर्विः) चमचा, (नेक्षणम्) शूल, शलाका आदि, (आयवनम्) कढ़ाही, (द्रोणकलशाः) द्रोणकलश [यज्ञ के कलश], (कुम्भ्यः) कुम्भी [गर्गरी], (वायव्यानि) पवन करने के (पात्राणि) पात्र [गृहस्थों के हैं], (इयम्) यह [पृथिवी] (एव) ही [संन्यासियों को] (कृष्णाजिनम्) कृष्णसार हरिन की मृगछाला [के समान है] ॥१६, १७॥

    भावार्थ

    गृहस्थ लोग अनेक प्रकार की सामग्री से यज्ञ आदि काम करते हैं, सन्यासी पुरुष जितेन्द्रिय होकर समस्त पृथिवी को अपना सर्वस्व और विस्तर आदि समझ प्रसन्न रहते हैं ॥१६, १७॥ मनुस्मृति-अ० ६। श्लो० ४३ में इस प्रकार वर्णन है ॥ अनग्निरनिकेतः स्याद् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत्। उपेक्षकोऽशङ्कुसुको मुनिर्भावसमाहितः ॥१॥ (उपेक्षकः) [बुरे कर्मों की] उपेक्षा करनेवाला, (अशङ्कुसुकः) स्थिरबुद्धि, (भावसमाहितः) परमेश्वर की भावना में ध्यान लगाये हुए (मुनिः) मुनि अर्थात् संन्यासी (अनग्निः) आहवनीय आदि अग्नियों से रहित और (अनिकेतः) विना घरवाला (स्यात्) रहे और (अन्नार्थम्) अन्न के लिये (ग्रामम् आश्रयेत्) ग्राम का आश्रम ले ॥

    टिप्पणी

    १६, १७−(शूर्पम्) सुशॄभ्यां निच्च। उ० ३।२६। शॄ हिंसायाम्-प प्रत्ययः, नित् किच् च, यद्वा शूर्प माने-घञ्। शूर्पमशनपवनं शृणातेर्वा-निरु० ६।९। धान्यस्फोटनयन्त्रम् (पवित्रम्) पुवः संज्ञायाम्। पा० ३।२।१८५। पूञ्, शोधने−इत्र। चालनी (तुषाः) तुष प्रीतौ-क, टाप्। धान्यत्वचः (ऋजीषा) अर्जेर्ऋज च। उ० २८। अर्ज अर्जने−ईषन्, कित्, ऋजादेशः, टाप्। यत्सोमस्य पूयमानस्यातिरिच्यते तदृजीषमपार्जितं भवति-निरु० ५।१२। नीरसं सोमचूर्णम् (अभिसवनीः) अभि+षुञ् स्नपने स्नाने च-ल्युट्, ङीप्। मार्जन्यः। प्रोक्षण्यः (आपः) यज्ञजलानि (स्रुक्) चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ चिक्। वटपत्राकृतिर्यज्ञपात्रभेदः (दर्विः) अ० ४।१४।१। काष्ठादिचमसः (नेक्षणम्) णिक्ष चुम्बने-ल्युट्। शूलशलाकादिद्रव्यम् (आयवनम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः-ल्युट्। पाकसाधनपात्रम्। कटाहः (द्रोणकलशाः) यज्ञघटाः (कुम्भ्यः) उखाः (वायव्यानि) वाय्वृतुपित्रुषसो यत्। पा० ४।२।३१। वायु-यत्। वायुदेवताकानि। वायुसाधकानि (पात्राणि) पा रक्षणे ष्ट्रन्। भाजनानि। यन्त्राणि (इयम्) प्रसिद्धा भूमिः (एव) (कृष्णाजिनम्) कृष्णसारमृगचर्मवत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अतिथियज्ञ की वस्तुएँ देवयज्ञ की वस्तुएँ

    पदार्थ

    १. (ये) = जो (व्रहयः यवा:) = अतिथियज्ञ के अवसर पर चावल व जौ (निरुप्यन्ते) = बिखेरे जाते हैं. (अंशवः एव ते) = वे यज्ञ में सोमलता के खण्डों के समान हैं। २. (यानि) = जो भोजन की तैयारी के लिए (उलूखलमुसलानि) = ऊखल व मूसल है, (ग्रावाणः एव ते) = वे यज्ञ में सोम कूटने के लिए उपयोगी पत्थरों के समान हैं। ३. (शूर्पम्) = अतिथि के अनशोधन के लिए काम में लाया जानेवाला छाज (पवित्रम्) = सोम के छानने के लिए 'दशापवित्र' नामक वस्त्रखण्ड के समान जानना चाहिए, (तुषा:) = छाज से फटकने पर अलग हो जानेवाले अन्न के तुष (ऋजीषा) = सोम को छानने के बाद प्राप्त फोक के समान हैं। (अभिषवणी:) = अतिथि का भोजन बनाने के लिए प्रयुक्त होनेवाले (आप:) = जल यज्ञ में सोमरस में मिलाने योग्य 'वसनीवरी' नामक जलधाराओं के समान हैं। ४. स्(त्रुक दर्वि:) = अतिथि का भोजन बनाने के लिए जो कड़छी है, वह यज्ञ के घृत-चमस के समान है, (आयवनम्) = भोजन तैयार करते समय जो दाल आदि के चलाने का कार्य किया जाता है, वह (नेक्षणम्) = यज्ञ में बार-बार सोमरस को मिलाने के समान है। (कुम्भ्यः) = खाना पकाने के लिए जो देगची आदि पात्र हैं, वे (द्रोणकलशा:) = सोमरस रखने के लिए द्रोणकलशों के समान हैं। (पात्राणि) = अतिथि को खिलाने के लिए जो कटोरी, थाली आदि पात्र हैं, वे यज्ञ में सोमपान करने के निमित्त (वायव्यानि) = वायव्य पात्रों के समान हैं और अतिथि के लिए (इयम् एव) = जो उठने-बैठने के लिए भूमि है, वही (कृष्णाजिनम्) = यज्ञ की कृष्ण मृगछाला के समान है।

    भावार्थ

    अतिथियज्ञ में प्रयुक्त होनेवाली वस्तुएँ देवयज्ञ में प्रयुक्त होनेवाली उस-उस वस्तु के समान हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (दर्विः) कड़छी है (स्रुक्) घी की आहुति देने का चमचा (आयवनम्) मिश्रित करने का दण्डा है (नेक्षणम्) नेक्षण, (कुम्भ्यः) गृहस्थ की कुम्भियां हैं (द्रोणकलशाः) सोमरस के काष्ठ-कलसे, (पात्राणि) जल पीने के पात्र हैं (वायव्यानि१) वायव्यपात्र, (इयम्) यह पृथिवी है (कृष्णाजिनम्) कृष्णमृग की छाल।

    टिप्पणी

    [आयवनम्= उदके प्रक्षिप्तानां तण्डुलानां मिश्रणसानं काष्ठम् (सायण)] [१. जल पीने के पात्रों को वायव्य अर्थात् वायु सम्बन्धी पात्रों से रूपित किया हैं। सोमयाग में वायुदेवताक पात्र होते हैं, छोटी-छोटी प्यालियां जिनके द्वारा सोमरस पिया जाता है। इन्हें 'ग्रहाः" कहते हैं, अर्थात् सोमरस "ग्रहण" करने के पात्र। पानी के पात्रों को वायु के पात्रों द्वारा रूपित इसलिये किया है कि पानी वर्षा द्वारा अन्तरिक्षस्थ वायु द्वारा ही प्राप्त होता है। पानी और सोमरस दोनों द्रव हैं। अतः इन में भी रूपकता दर्शाई है।]

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अतिथि-यज्ञ और देवयज्ञ की तुलना।

    भावार्थ

    (शूर्पं पवित्रम्) अतिथि के निमित्त अन्न साफ करने के लिये जो छाज काम में लाया जाता है वह यज्ञ में ‘पवित्र’ अर्थात् सोम छानने के लिये ‘दशापवित्र’ नामक वस्त्र खण्ड के समान जानना चाहिये। (तुषाः ऋजीषाः) छाज से फटकते हुए जो अन्न के तुष अलग हो जाते हैं वह यज्ञ में सोम को छानने के बाद प्राप्त फोक के समान हैं। (अभिषवणीः आपः) अतिथि के भोजन बनाने के लिये जो जल प्रयुक्त होते हैं वह यज्ञ में सोम रस में मिलाने योग्य ‘वसतीवरी’ नामक जलधाराओं के समान हैं। (स्रुक् दर्विः) अतिथि का भोजन बनाने के लिये जो कड़छी प्रयुक्त होती है वह यज्ञ में ‘स्रुक्’ या घृतचमस् के समान हैं। (आयवनम् नेक्षणम्) भोजन तैयार करते समय जो दाल आदि चलाने का कार्य किया जाता है वह यज्ञ में सोम-रस को बार बार मिलाने के समान है। (कुम्भ्यः द्रोणकलशाः) खाना पकाने के लिये जो डेगची आदि पात्र हैं वे यज्ञ में सोम रस रखने के लिये द्रोणकलशों के समान हैं। (पात्राणि वायव्यानि) अतिथि को खिलाने के जिये जो थाली, कटोरी आदि पात्र हैं वे यज्ञ में सोमपान करने के निमित्त ‘वायव्य’ पात्रों के समान हैं। और अतिथि के लिये (इयम् एव कृष्णाजिनम्) जो बैठने उठने के लिये वह भूमि है वह यज्ञ में कृष्ण मृगछाला के समान है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ‘सो विद्यात्’ इति षट् पर्यायाः। एकं सुक्तम्। ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिरुत विद्या देवता। तत्र प्रथमे पर्याये १ नागी नाम त्रिपाद् गायत्री, २ त्रिपदा आर्षी गायत्री, ३,७ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, ४ आसुरीगायत्री, ६ त्रिपदा साम्नां जगती, ८ याजुषी त्रिष्टुप्, १० साम्नां भुरिग बृहती, ११, १४-१६ साम्न्योऽनुष्टुभः, १२ विराड् गायत्री, १३ साम्नी निचृत् पंक्तिः, १७ त्रिपदा विराड् भुरिक् गायत्री। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    The ladle is the ghrta-ladle for oblation, the fork is the stirring prong, the jars are soma vessels, utensils are like soma cups, this earth is like the black antelope hide for a seat.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The ladle (sruk) is the sacrificial spoon (darvi); the stirring prong is the spit, water-jars are the vessels for storing (naksanam) cure-juice (drona-kalasa); drinking mugs-kumbhi (for the guests) are the mortar-shaped vessels for drinking cure-juice (at the sacrifice); and this (earth) is, as if, blackbuck skin (krsna-ajina).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    The spoon, ladle, fork and stirring-prong are wooden Soma-tube; the earthen cooking-pots are the mortar-shaped Soma-vassels; this earth is just the black-antelopa’s skin.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    Just as the winnowing-basket, the filter, the chaff, the Soma dregs, the bathing basins the sacrificial water, the spoon, the ladle, the fork, the stirring prong, the Soma tubs, the cooking pots and the vessels are useful for the householders, so does this earth serve for the hermits, the purpose of the black-antelope’s skin to lie on.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६, १७−(शूर्पम्) सुशॄभ्यां निच्च। उ० ३।२६। शॄ हिंसायाम्-प प्रत्ययः, नित् किच् च, यद्वा शूर्प माने-घञ्। शूर्पमशनपवनं शृणातेर्वा-निरु० ६।९। धान्यस्फोटनयन्त्रम् (पवित्रम्) पुवः संज्ञायाम्। पा० ३।२।१८५। पूञ्, शोधने−इत्र। चालनी (तुषाः) तुष प्रीतौ-क, टाप्। धान्यत्वचः (ऋजीषा) अर्जेर्ऋज च। उ० २८। अर्ज अर्जने−ईषन्, कित्, ऋजादेशः, टाप्। यत्सोमस्य पूयमानस्यातिरिच्यते तदृजीषमपार्जितं भवति-निरु० ५।१२। नीरसं सोमचूर्णम् (अभिसवनीः) अभि+षुञ् स्नपने स्नाने च-ल्युट्, ङीप्। मार्जन्यः। प्रोक्षण्यः (आपः) यज्ञजलानि (स्रुक्) चिक् च। उ० २।६२। स्रु गतौ चिक्। वटपत्राकृतिर्यज्ञपात्रभेदः (दर्विः) अ० ४।१४।१। काष्ठादिचमसः (नेक्षणम्) णिक्ष चुम्बने-ल्युट्। शूलशलाकादिद्रव्यम् (आयवनम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः-ल्युट्। पाकसाधनपात्रम्। कटाहः (द्रोणकलशाः) यज्ञघटाः (कुम्भ्यः) उखाः (वायव्यानि) वाय्वृतुपित्रुषसो यत्। पा० ४।२।३१। वायु-यत्। वायुदेवताकानि। वायुसाधकानि (पात्राणि) पा रक्षणे ष्ट्रन्। भाजनानि। यन्त्राणि (इयम्) प्रसिद्धा भूमिः (एव) (कृष्णाजिनम्) कृष्णसारमृगचर्मवत् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top