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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - पिपीलिकमध्योष्णिक् सूक्तम् - अतिथि सत्कार
    78

    अ॑शि॒ताव॒त्यति॑थावश्नीयाद्य॒ज्ञस्य॑ सात्म॒त्वाय॑। य॒ज्ञस्यावि॑च्छेदाय॒ तद्व्र॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒शि॒तऽव॑ति । अति॑थौ । अ॒श्नी॒या॒त् । य॒ज्ञस्य॑ । सा॒त्म॒ऽत्वाय॑ । य॒ज्ञस्य॑ । अवि॑ऽछेदाय । तत् । व्र॒तम् ॥८.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अशितावत्यतिथावश्नीयाद्यज्ञस्य सात्मत्वाय। यज्ञस्याविच्छेदाय तद्व्रतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अशितऽवति । अतिथौ । अश्नीयात् । यज्ञस्य । सात्मऽत्वाय । यज्ञस्य । अविऽछेदाय । तत् । व्रतम् ॥८.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 3; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथि के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (अतिथौ अशितवति) अतिथि के भोजन कर लेने पर (अश्नीयात्) वह [गृहस्थ] खावे, (यज्ञस्य) यज्ञ [देवपूजा, सङ्गतिकरण और दान] की (सात्मत्वाय) चैतन्यता के लिये और (यज्ञस्य) यज्ञ की (अविच्छेदाय) निरन्तर प्रवृत्ति के लिये (तत्) वह (व्रतम्) नियम है ॥८॥

    भावार्थ

    अतिथि का सत्कार करने से गृहस्थ के शुभकर्म निर्विघ्न होकर सदा चलते रहते हैं ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(अशितवति) सांहितिको दीर्घः। भुक्तवति (अतिथौ) संन्यासिनि (अश्नीयात्) जेमेत् (यज्ञस्य) शुभव्यवहारस्य (सात्मत्वाय) सजीवनत्वाय। वृद्धिकरणाय (अविच्छेदाय) निरन्तरत्वाय। अविरामाय। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    अतिथि का लक्षण

    पदार्थ

    १. (एष:) = यह (वै) = निश्चय से (अतिथि:) = अतिथि है, (यत् श्रोत्रियः) = जो वेद का विद्वान् है, (तस्मात् पूर्व:) = उससे पहले (न अश्नीयात्) =  भोजन न करे। २. (अतिथौ अशितावति अश्नीयात) = अतिथि के भोजन कर लेने पर ही भोजन खाये ताकि (यज्ञस्य सात्मत्वाय) = यज्ञ की संगतता बनी रहे, अर्थात् यज्ञ सम्पूर्णता से सफल हो, (यज्ञस्य अविच्छेदाय) = यज्ञ का विच्छेद [विनाश] न हो, (तत् व्रतम्) = यह व्रत ही लेना चाहिए कि 'अतिथि से पूर्व नहीं खाऊँगा'।३. (एतत् वै उ) = यह ही निश्चय से (स्वादीय:) = सब पदार्थ बहुत स्वादिष्ट हैं, (यत् अधिगवम्) = जो गौ से प्राप्त होता है, (क्षीरं वा) = दूध या (मांसं वा) = या अन्य मन को अच्छा लगनेवाला [मानसं अस्मिन् सीदति इति-निरु०] दूध से उत्पन्न घी, मलाई, रबड़ी, खोया, खीर आदि पदार्थ है, (तत् एव) = उन पदार्थों को गृहस्थ अतिथि से पूर्व (न अश्नीयात्) = न खाये। अतिथि को खिलाकर ही इन पदार्थों का यज्ञशेष के रूप में ग्रहण करना चाहिए।

    भावार्थ

    श्रोत्रिय अतिथि को दूध, रबड़ी आदि स्वादिष्ट पदार्थों को खिलाकर उसके बाद ही गृहस्थ को यज्ञशेष के रूप में उन पदार्थों का ग्रहण करना चाहिए। यह गृहस्थ का व्रत है। इस व्रत के पालन से ही यज्ञ की पूर्णता व जीवन का कल्याण हुआ करता है।

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    भाषार्थ

    (अतिथौ अशितावति) अतिथि के खा चुकने पर (अश्नीयात्) अतिथिपति खाए, (यज्ञस्य सात्मत्वाय) अतिथियज्ञ की सात्मकता के लिये, अतिथियज्ञ के अविच्छेद के लिये, (तद् व्रतम्) यह अतिथिपति के लिये व्रत है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "गृहाणामश्नाति" में दान्तों और मुख द्वारा खाना ही अभिप्रेत नहीं, मन्त्र १ में इष्ट-और-पूर्त, मन्त्र ३, में स्फाति, मन्त्र ४ में प्रजा और पशु, मन्त्र ५ में कीर्ति और यशः, मन्त्र ६ में श्री सौर संविद् का खाना दान्तों और मुख द्वारा नहीं हो सकता, इस लिये "विनाश करना" यह अर्थ सुसंगत प्रतीत होता है। मन्त्र ७ में वास्तविक अतिथि "श्रोत्रिय" कहा है। श्रोत्रिय वेदज्ञ है जिसे कि वेदों द्वारा नाना विद्याओं का ज्ञान है। अतः वह इष्ट-पूर्त, दुग्ध, और नानारसों सम्बन्धी, ऊर्जा, स्फाति, प्रजा और पशु सम्बन्धी, यश और कीर्ति सम्बन्धी ज्ञान विज्ञान का उपदेश दे सकता है, ताकि गृहवासियों की इस श्रेष्ठ सम्पत्तियों का विनाश न हों निमन्त्रित या स्वयमागत अतिथि के भोजन से पहिले भोजन करना सभ्यता और शिष्टाचार के विपरीत है। इस से अतिथि यज्ञ निरात्मक हो जाता है और अतिथि यज्ञ की प्रथा विच्छिन्न हो जाती है। अतः वेदोक्त विधि को बनाए रखने के लिये अतिथिपति को यह निजव्रत समझना चाहिये कि वह अतिथि से पूर्व भोजन न करे। अतिथिसेवा 'यज्ञ' रूप है। यज्ञ में देवता को आहुति देने के पश्चात् यज्ञशेष के प्राशन की विधि है। श्रोत्रिय, सब, अतिथियों में सर्वश्रेष्ठ देवता रूप हैं]।

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    विषय

    अतिथि यज्ञ न करने से हानियें।

    भावार्थ

    (यज्ञस्य सात्मत्वाय) यज्ञ के सम्पूर्ण सफल करने और (यज्ञस्य अविच्छेदाय) यज्ञ को विच्छेद, विनाश न होने देने के लिए (अतिथौ अशितावति) अतिथि के भोजन कर चुकने पर (अश्नीयात्) गृहस्थ स्वयं भोजन करे। (तत् व्रतम्) यही व्रत कर ले, यही धर्माचरण है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिविद्यावा देवता, १-६, ९ त्रिपदाः पिपीलकमध्या गायत्र्यः, ७ साम्नी बृहती, ८ पिपीकामध्या उष्णिक्। नवर्चं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    For soulful performance of the yajna to its completion in the essential spirit and for the continuance of the family’s yajnic tradition without break, the host should eat only after the holy guest has been served to his satisfation. This is the law.

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    Translation

    Let one eat after the guest has eaten; this is the proper course for making the sacrifice full of spirit and for uninterrupted completion of the sacrifice.

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    Translation

    For the animation of the yajna, the procedure and rules prescribed for serving the guest and for the preservation of the continuity of such praetice a house-holding man should make this code of conduct that he would take his meal after the guest has eaten up.

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    Translation

    A householder should eat when the guest hath eaten. This is the rule a householder should follow for the animation of the sacrifice and the preservation of its continuity.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(अशितवति) सांहितिको दीर्घः। भुक्तवति (अतिथौ) संन्यासिनि (अश्नीयात्) जेमेत् (यज्ञस्य) शुभव्यवहारस्य (सात्मत्वाय) सजीवनत्वाय। वृद्धिकरणाय (अविच्छेदाय) निरन्तरत्वाय। अविरामाय। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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