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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - पञ्चपदा विराट्पुरस्ताद्बृहती सूक्तम् - अतिथि सत्कार
    76

    स य ए॒वं वि॒द्वान्न द्वि॒षन्न॑श्नीया॒न्न द्वि॑ष॒तोऽन्न॑मश्नीया॒न्न मी॑मांसि॒तस्य॒ न मी॑मां॒समा॑नस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: ।य: । ए॒वम् । वि॒द्वान् । न । द्वि॒षन् । अ॒श्नी॒या॒त् । न । द्वि॒ष॒त: । अन्न॑म् । अ॒श्नी॒या॒त् । न । मी॒मां॒सि॒तस्य॑ । न । मी॒मां॒समा॑नस्य ॥७.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स य एवं विद्वान्न द्विषन्नश्नीयान्न द्विषतोऽन्नमश्नीयान्न मीमांसितस्य न मीमांसमानस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: ।य: । एवम् । विद्वान् । न । द्विषन् । अश्नीयात् । न । द्विषत: । अन्नम् । अश्नीयात् । न । मीमांसितस्य । न । मीमांसमानस्य ॥७.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 2; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथि के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो (एवम्) इस प्रकार [पूर्वोक्त विधि से] (विद्वान्) ज्ञानवान् है, (सः) वह (द्विषन्) आप द्वेष करता हुआ (न)(अश्नीयात्) खावे [नाश करे] और (न)(द्विषतः) द्वेष करते हुए पुरुष का, और (न)(मीमांसितस्य) संशयवाले का और (न)(मीमांसमानस्य) विचार से तत्त्वनिर्णय करते हुए का (अन्नम्) अन्न (अश्नीयात्) खावे [बिगाड़े] ॥७॥

    भावार्थ

    अतिथि संन्यासी राग-द्वेष छोड़कर निष्पक्ष और निर्भय होकर पूर्वोक्त विधि से सब का उपकार करता हुआ भोजन करे, और विना उपकार किये कभी किसी का अन्न वृथा न खावे ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(सः) अतिथिः (यः) (एवम्) पूर्वोक्तविधिना (न) निषेधे (द्विषन्) अप्रीणन् (अश्नीयात्) भुञ्जीत। नाशयेत् (न) (द्विषतः) अप्रीणतः पुरुषस्य (अन्नम्) अन प्राणने-नन्। यद्वा अद भक्षणे-क्त। भोजनम् (अश्नीयात्) (न) (मीमांसितस्य) आशङ्कायामुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।——१।७। मान पूजायाम्, आशङ्कायाम्-सन् आशङ्कायाम्, ततः क्त। संशययुक्तस्य (न) (मीमांसमानस्य) अ० ९।१।३। विचारेण तत्त्वनिर्णयं कुर्वतः ॥

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    विषय

    सप्रेम आतिथ्य व पाप-विनाश

    पदार्थ

    १. (यः एवं विद्वान्) = जो इसप्रकार ब्रह्मज्ञानी है, (स:) = वह (द्विषन् न अश्नीयात्) = किसी के प्रति द्वेष करता हुआ न खाये और (द्विषतः अन्नं न अश्नीयात्) = द्वेष करते हुए पुरुष के अन्न को भी न खाए। (न मीमांसितस्य) = शंका के पात्र [सन्देहास्पद] पुरुष के अन्न को भी न खाए, (मीमां समानस्य न) = हमपर शंका करते हुए पुरुष के अन्न को भी न खाए। (एषः सर्वः वै) = ये सब लोग निश्चय से (जग्धपाप्मा) = नष्ट पापवाले होते हैं, यस्य अन्नम्-जिसके अन्न को अश्नन्ति-अतिथि खाते हैं और ३. (एषः सर्वः वै) = ये सब निश्चय से (अजग्धपाप्मा) = अनष्ट पापवाले होते हैं, (यस्य अनं न अश्नन्ति) = जिसका अन्न अतिथि लोग नहीं खाते।।

    भावार्थ

    प्रेमवाले स्थल में ही आतिथ्य स्वीकार करना चाहिए। जिसके आतिथ्य को विद्वान् अतिथि स्वीकार करते हैं, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। वस्तुत: जहाँ विद्वान् अतिथियों का आना-जाना बना रहता है, वहाँ पापवृत्ति पनप ही नहीं पाती।

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    भाषार्थ

    (सः) वह (यः) जो (एवम्) इस प्रकार (विद्वान्) अतिथियज्ञ के महत्त्व को समझता है वह [अतिथिपति के प्रति] (द्विषन्) द्वेषभाव रखता हुआ (न अश्नीयात्) [उसका] अन्न न खाएं और (न द्विषतः, अन्नम् अश्नीयात्) न द्वेष भाव रखने वाले [अतिथिपति] का अन्न खाए, (न मीमांसितस्य) न उस का अन्न खाए जिस ने निश्चय कर लिया हो कि अतिथियज्ञ निष्फल है, (न मीमांसमानस्य) और न उसका अन्न खाए जोकि अतिथियज्ञ के सम्बन्ध में सन्दिग्धावस्था में हो, [कि अतिथियज्ञ करना चाहिए या नहीं]।

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    विषय

    अतिथि यज्ञ की देव यज्ञ से तुलना।

    भावार्थ

    (यः एवं विद्वान्) जो इस प्रकार का तत्व जान लेता है (सः) वह (द्विषन्) दांतों के प्रति द्वेष करता हुआ (न अश्नीयात्) दाता का अन्न न खाय और (द्विषतः) द्वेष करने वाले दाता का भी (अन्नम् न अश्नीयात्) अन्न न खावे। (न मीमांसितस्य) शङ्का के पात्र या सन्देहपात्र पुरुष का भी अन्न न खावे और (न मीमांसानस्य) जो स्वयं शंका कर रहा हो उसका अन्न भी न खावे। अर्थात् जिसके मित्रभाव में सन्देह हो या जो उसपर सन्देह करता हो दोनों एक दूसरे का अन्न न खावें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिर्विद्या वा देवता। विराड् पुरस्ताद् बृहती। २, १२ साम्नी त्रिष्टुभौ। ३ आसुरी अनुष्टुप्। ४ साम्नी उष्णिक्। ५ साम्नी बृहती। ११ साम्नी बृहती भुरिक्। ६ आर्ची अनुष्टुप्। ७ त्रिपात् स्वराड् अनुष्टुप्। ९ साम्नी अनुष्टुप्। १० आर्ची त्रिष्टुप्। १३ आर्ची पंक्तिः। त्रयोदशर्चं द्वितीयं पर्यायसूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    Thus should the man of knowledge, the guest who is free from hate and anger, accept the hospitality of the house holder. He should not accept the hospitality of the man of hate and anger, nor of the man of dubious character, nor of the man of doubt and suspicion.

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    Translation

    Let him, who knows this, not partake food having malice for the host, rior should he partake food of a malicious host, nor of a host of doubtful conduct (mimansitasya), nor of a doubting host (mimansa manasya).

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    Translation

    The guest who knows the great courtesy of the hospitality should not eat hating, should not eat the food of the man who hates him, should not eat the food of one who is in dubiousity, and should not eat the food of ones who is always in skepticism.

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    Translation

    A hermit who hath this knowledge should not eat the food of one whom he dislikes, should not eat the food of one who hates him, nor of one who is doubtful, nor of one who is undecided.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(सः) अतिथिः (यः) (एवम्) पूर्वोक्तविधिना (न) निषेधे (द्विषन्) अप्रीणन् (अश्नीयात्) भुञ्जीत। नाशयेत् (न) (द्विषतः) अप्रीणतः पुरुषस्य (अन्नम्) अन प्राणने-नन्। यद्वा अद भक्षणे-क्त। भोजनम् (अश्नीयात्) (न) (मीमांसितस्य) आशङ्कायामुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।——१।७। मान पूजायाम्, आशङ्कायाम्-सन् आशङ्कायाम्, ततः क्त। संशययुक्तस्य (न) (मीमांसमानस्य) अ० ९।१।३। विचारेण तत्त्वनिर्णयं कुर्वतः ॥

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