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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - साम्न्यनुष्टुप् सूक्तम् - अतिथि सत्कार
    46

    तस्मा॑ उ॒द्यन्त्सूर्यो॒ हिङ्कृ॑णोति संग॒वः प्र स्तौ॑ति।

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्मै॑ । उ॒त्ऽयन् । सूर्य॑: । हिङ् । कृ॒णो॒ति॒ । स॒म्ऽग॒व: । प्र । स्तौ॒ति॒ ॥१०.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्मा उद्यन्त्सूर्यो हिङ्कृणोति संगवः प्र स्तौति।

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्मै । उत्ऽयन् । सूर्य: । हिङ् । कृणोति । सम्ऽगव: । प्र । स्तौति ॥१०.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथि के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्मै) उस [गृहस्थ] के लिये (उद्यन्) उदय होता हुआ (सूर्यः) सूर्य (हिङ्) तृप्ति कर्म (कृणोति) करता है, (संगवः) किरणों से संगतिवाला [दोपहर से पहिले सूर्य] (प्र) अच्छी भाँति (स्तौति) स्तुति करता है। (मध्यन्दिनः) मध्याह्नकाल (उत् गायति) उद्गीथ [वेदगान] करता है, (अपराह्णः) तीसरा पहर (निधनम्) निधि (प्रति) प्रत्यक्ष (हरति) प्राप्त कराता है और (अस्तंयन्) डूबता हुआ [सूर्य, निधि प्रत्यक्ष प्राप्त कराता है]। [उसके लिये] (भूत्याः) वैभव का, (प्रजायाः) प्रजा.... म० १-३ ॥४, ५॥

    भावार्थ

    मनुष्य विद्वान् अतिथियों के सत्सङ्ग से पुरुषार्थ करके सब काल में आनन्द करता है ॥४, ५॥

    टिप्पणी

    ४, ५−(तस्मै) गृहस्थाय (उद्यन्) उद्गच्छन् (सूर्यः) (संगवः) गोरद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। सम्+गो-टच्। गोभिः किरणैः सङ्गतो मध्याह्नपूर्वः सूर्यः (मध्यन्दिनः) अ० ४।११।१२। मध्याह्नः (अपराह्णः) पूर्वापराधरो०। पा० २।२।१। इति समासः। राजाहःसखिभ्यष्टच्। पा० ५।४।९१। टच्। अह्नोऽह्न एतेभ्यः। पा० ५।४।८८। अह्नादेशः। अह्नोऽदन्तात्। पा० ८।४।७। णत्वम्। रात्राह्नाहाः पुंसि। पा० २।४।२९। इति पुंस्त्वम्। दिनस्य तृतीयभागः (अस्तंयन्) अदर्शनं प्राप्नुवन् सूर्यः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सूर्य के द्वारा अतिथियज्ञ करनेवाले का शंसन

    पदार्थ

    १. अतिथि-सत्कार करनेवाले (तस्मै) = उस यज्ञमय जीवनवाले पुरुष के लिए (उद्यन् सूर्य: हिड्कृणोति) = उदय होता हुआ सूर्य आनन्द का सन्देश देता है, (संगवः प्रस्तौति) = संगवकाल [सूर्य जब पर्याप्त ऊपर आ जाता है] उसकी विशेष प्रशंसा [स्तुति] करता है। २. (माध्यन्दिन: मध्याह्न उद्गायति) = उसके गुणों का गान करता है, (अपराह्नः प्रतिहरति) = अपराह्न काल का सूर्य उसके लिए 'प्रतिहार' करता है-उसे पुष्टि देता है। (अस्तंयन् निधनम्) = अस्त को जाता हुआ सूर्य उसे आश्रय देता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार आतिथ्य सत्कार करता है, वह (भूत्या: प्रजाया: पशूनाम्) = सम्पत्ति, प्रजा और पशुओं का (निधनं भवति) = आश्रयस्थान बनता है।

    भावार्थ

    सूर्य दिन की पाँच अवस्थाओं में अतिथि सत्कार करनेवाले के यश को उज्ज्वल करता, विस्तृत करता, गायन करता, उसे सब पदार्थ प्राप्त कराता और उसे सब पदार्थों से सम्पन्न करता है। इसप्रकार यह अतिथियज्ञ करनेवाला 'सम्पत्ति, प्रजा व पशुओं का आश्रय स्थान बनता है

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    भाषार्थ

    (तस्मै) उस अतिथिपति के लिये (उद्यन्) उदित होता हुआ (सूर्यः) सूर्य (हिङ्कृणोति) हिङ् शब्द का उच्चारण करता है, (संगवः) रश्मियों से संगत हुआ (प्रस्तौति) प्रस्ताव करता है।। ४।।

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    विषय

    अतिथि यज्ञ की सामगान से तुलना।

    भावार्थ

    (उद् यत् सूर्यः तस्मै हिंकृणोति) उदय होता हुआ सूर्य उसके यशोगान करने के लिये ‘हिंकार’ करता है, (संगवः प्रस्तौति) ‘संगव’ काल का सूर्य जब पर्याप्त ऊपर आ जाता है वह उसके लिए ‘प्रस्ताव’ करता है, (मध्यन्दिनः उद्गायति) मध्यन्दिन का सूर्य उद्गान करता है, (अपराह्णः प्रतिहरन्ति) अपराह्न काल का सूर्य उसके लिये ‘प्रतिहार’ करता है, और (अस्तं यन् निधनम्) अस्त जाता हुआ सूर्य ‘निधन’ करता है। अर्थात् सूर्य दिन की पांच अवस्थाओं में उसके यश को उज्ज्वल करता, विस्तृत करता, गायन करता, उसको सब पदार्थ प्राप्त कराता और उसे समस्त पदार्थों से सम्पन्न करता है और इस प्रकार वह (भूत्याः प्रजायाः पशूनां निधनं भवति) सम्पत्ति, प्रजा और पशुओं का परम आश्रय हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि देवता पूर्वोक्ते। १ साम्नी उष्णिक्, २ पुर उष्णिक्, ३ साम्नी भुरिग बृहती, ४, ६, ९ साम्न्यनुष्टुभः, ५ त्रिपदा निचृद विषमागायत्री, ७ त्रिपदा विराड् विषमा गायत्री, ८ त्रिपाद विराड् अनुष्टुप्। दशर्चं पर्यायसूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    For the host who knows the law and discipline of Atithi yajna, the rising sun sings the Hinkara, and with the radiance of the rays it sings the Prastava, song of rising excitement.

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    Translation

    For him the rising sun chants hin; cow-fathering (Sangava) time (i.e., early moming) sings the prelude; the noon chants loudly; the after-noon joins in; the sun-set sings the finale; he, who knows this, becomes the abode: of prosperity, of progeny and of cattle, (Rising sun - hinkara; Sangava - prastotr; Madhyadina Sunudgatr; Afternoon sun - pratihartr ; Setting sun - nidhana)

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    Translation

    4+5. For him who knows the essential of the Atithi Yajna the Rising Sun murmers Hinkara, the sun of early morning pours the notes of Prastava, the Noon-Sun sings the song of Udgatar, the sun in the after-noon sings Pratihara and the setting sun chants Nidhana and to him comes the plenty of prosperity, progeny and cattle.

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    Translation

    For the householder, who knows how to honor a guest, the rising Sun brings the message of joy, the early morning Sun filled with rays sings praise, the mid-day Sun chants his virtues, the afternoon Sun grants nourishment the setting Sun grants shelter. He becomes the abiding place of welfare, of progeny, and of cattle.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४, ५−(तस्मै) गृहस्थाय (उद्यन्) उद्गच्छन् (सूर्यः) (संगवः) गोरद्धितलुकि। पा० ५।४।९२। सम्+गो-टच्। गोभिः किरणैः सङ्गतो मध्याह्नपूर्वः सूर्यः (मध्यन्दिनः) अ० ४।११।१२। मध्याह्नः (अपराह्णः) पूर्वापराधरो०। पा० २।२।१। इति समासः। राजाहःसखिभ्यष्टच्। पा० ५।४।९१। टच्। अह्नोऽह्न एतेभ्यः। पा० ५।४।८८। अह्नादेशः। अह्नोऽदन्तात्। पा० ८।४।७। णत्वम्। रात्राह्नाहाः पुंसि। पा० २।४।२९। इति पुंस्त्वम्। दिनस्य तृतीयभागः (अस्तंयन्) अदर्शनं प्राप्नुवन् सूर्यः। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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