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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 6 के मन्त्र
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मन्त्र चुनें
अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - अतिथिः, विद्या
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अतिथि सत्कार
65
यद॑भि॒वद॑ति दी॒क्षामुपै॑ति॒ यदु॑द॒कं याच॑त्य॒पः प्र ण॑यति ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒भि॒ऽवद॑ति । दी॒क्षाम् । उप॑ । ए॒ति॒ । यत् । उ॒द॒कम् । याच॑ति । अ॒प: । प्र । न॒य॒ति॒ ॥६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यदभिवदति दीक्षामुपैति यदुदकं याचत्यपः प्र णयति ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अभिऽवदति । दीक्षाम् । उप । एति । यत् । उदकम् । याचति । अप: । प्र । नयति ॥६.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संन्यासी और गृहस्थ के धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जब वह [गृहस्थ] (अभिवदति) अभिवादन करता है, वह (दीक्षाम्) दीक्षा [व्रत का उपदेश] (उप एति) आदरपूर्वक पाता है, (यत्) जब (उदकम्) जल को वह [गृहस्थ] (याचति) विनय करके देता है, वह [गृहस्थ] (अपः) जल (प्र णयति) [प्रणीता पात्र में] सन्मुख लाता है ॥४॥
भावार्थ
गृहस्थ लोग आदरपूर्वक अभिवादन आदि करके और पाद्य, अर्घ्य और पानीय जल आदि समर्पण करके अतिथियों से उत्तम शिक्षा ग्रहण करें ॥४॥
टिप्पणी
४−(यत्) यदा (अभिवदति) संवदति प्रणमति वा (दीक्षाम्) अ० ८।५।१५। व्रतोपदेशम् (उपैति) आदरेण प्राप्नोति (यत्) यदा (याचति) याचृ आत्मने दानार्थं प्रेरणे, ग्रहणार्थं प्रेरणेऽपि-शब्दकल्पद्रुमः। विनयेन ददाति। (अपः) जलानि (प्र णयति) प्रणीतापात्रेण समर्पयति गृहस्थः ॥
विषय
अतिथियज्ञ-देवजन
पदार्थ
१. (यत्) = जब (अतिथिपति:) = अतिथियों का पालक गृहपति [गृहस्थ Host] (अतिथीन् प्रतिपश्यति) = अतिथियों की ओर देखता है, तब वह (वै देवयजनं प्रेक्षते) = निश्चय से देवयजन । को देखता है। वह यही सोचता है कि यह अतिथियज्ञ ही मेरा देवयज्ञ है। इसके द्वारा मैं अपने साथ देवों का [दिव्य गुणों का] यजन करूँगा-दिव्य गुणों को धारण करनेवाला बनूंगा। २. (यत् अभिवदति) = जब अतिथि का अभिवादन करता है तब वह (दीक्षाम् उपैति) = यज्ञ में दीक्षा [व्रत-ग्रहण] को प्राप्त करता है। (यत्) = जब (उदकं याचति) = जल-पात्रों में जल के द्वारा 'अर्ष, पाध, आचमनीय' आदि लेने के लिए कहता है तब वह (अपः प्रणयति) = मानो देवयज्ञ में जलों को प्रणीता-पात्र में लाता है। ३. (याः एव यज्ञे आपः प्रणीयन्ते) = जो भी जल यज्ञ में प्रणीता पात्र में लाये जाते हैं, (ताः एव ता:) = वे ही ये जल हैं जो अतिथियज्ञ में 'अर्घ, पाद्य, आचमनीय' के रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं।
भावार्थ
अतिथि सत्कार 'देवयज्ञ' ही है। यह अपने जीवन में दिव्य गुणों को धारण करने का उत्तम साधन है।
भाषार्थ
अतिथिपति (यद् अभिवदति) अतिथियों को अभिवादन करता है मानो यज्ञिय दीक्षा को प्राप्त करता है, (यद् उदकम् याचति) जो भृत्यों द्वारा जल लाने की मांग करता है मानो (अपः) यज्ञ निमित्त उदक को (प्रणयति) प्राप्त करता है।
टिप्पणी
[भृत्यों द्वारा उदक की मांग अतिथियों के पादप्रक्षालनार्थ है]
विषय
अतिथि-यज्ञ और देवयज्ञ की तुलना।
भावार्थ
वह गृहपति (यद् अभिवदति) जब अतिथियों को अभिवादन, नमस्कार करता है, मानो तब वह अतिथि यज्ञ में (दीक्षाम् उपेति) दीक्षा प्राप्त करता है। और (यत्) जब (उदकं याचति) जल के पात्र को लाकर अतिथि को अर्घ्य-पाद्य-आचमनीय आदि प्रदान करता है तब मानो वह देवयज्ञ में (अपः प्र णयति) जलों का प्रोक्षण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
‘सो विद्यात्’ इति षट् पर्यायाः। एकं सुक्तम्। ब्रह्मा ऋषिः। अतिथिरुत विद्या देवता। तत्र प्रथमे पर्याये १ नागी नाम त्रिपाद् गायत्री, २ त्रिपदा आर्षी गायत्री, ३,७ साम्न्यौ त्रिष्टुभौ, ४ आसुरीगायत्री, ६ त्रिपदा साम्नां जगती, ८ याजुषी त्रिष्टुप्, १० साम्नां भुरिग बृहती, ११, १४-१६ साम्न्योऽनुष्टुभः, १२ विराड् गायत्री, १३ साम्नी निचृत् पंक्तिः, १७ त्रिपदा विराड् भुरिक् गायत्री। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Atithi Yajna: Hospitality
Meaning
When he welcomes the guest, he receives Diksha, initiation into a holy commitment. When he asks if he could offer water and brings up water for the guest:
Translation
When he greets them with words, he (in fact) receives consecration (diksa); whoever asks for water, to him he fetches water;
Translation
When he salutes the guest with reverence he takes the vow of performing yajna, when he asks for water for the guest he performs the water-sprinkling procedure of yajna.
Translation
When he salutes them reverently he undergoes preparation for a religious ceremony: when he calls for water, he solemnly brings sacrificial water.
Footnote
First ‘he’ refers to the householder, second ‘he’ to the guest and third ‘he’ also to the householder. Religious ceremony: Honoring the guest.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(यत्) यदा (अभिवदति) संवदति प्रणमति वा (दीक्षाम्) अ० ८।५।१५। व्रतोपदेशम् (उपैति) आदरेण प्राप्नोति (यत्) यदा (याचति) याचृ आत्मने दानार्थं प्रेरणे, ग्रहणार्थं प्रेरणेऽपि-शब्दकल्पद्रुमः। विनयेन ददाति। (अपः) जलानि (प्र णयति) प्रणीतापात्रेण समर्पयति गृहस्थः ॥
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