Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 5
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - स्त्रष्टा देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    3

    ततो॑ वि॒राड॑जायत वि॒राजो॒ऽअधि॒ पूरु॑षः।स जा॒तोऽअत्य॑रिच्यत प॒श्चाद् भूमि॒मथो॑ पु॒रः॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ततः॑। वि॒राडिति॑ वि॒ऽराट्। अ॒जा॒य॒त॒। वि॒राज॒ इति॑ वि॒ऽराजः॑। अधि॑। पूरु॑षः। पुरु॑ष॒ऽइति॑ पुरु॑षः ॥ सः। जा॒तः। अति॑। अ॒रि॒च्य॒त॒। प॒श्चात्। भूमि॑म्। अथो॒ऽइत्यथो॑। पु॒रः ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ततोविराडजायत विराजोऽअधि पूरुषः । स जातोऽअत्यरिच्यत पश्चाद्भूमिमथो पुरः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    ततः। विराडिति विऽराट्। अजायत। विराज इति विऽराजः। अधि। पूरुषः। पुरुषऽइति पुरुषः॥ सः। जातः। अति। अरिच्यत। पश्चात्। भूमिम्। अथोऽइत्यथो। पुरः॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 31; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    पदार्थ -

    पदार्थ =  ( ततः ) = उस सनातन पूर्ण परमात्मा से  ( विराट् ) = सूर्य चन्द्रादि विविध लोकों से प्रकाशवान् ब्रह्माण्डरूप संसार  ( अजायत ) = उत्पन्न हुआ।  ( विराजः अधि ) = विराट् संसार के भी ऊपर अधिष्ठाता  ( पूरुषः ) = सर्वत्र परिपूर्ण परमात्मा होता है, ( अथो ) = इसके अनन्तर  ( सः ) = वह पुरुष  ( पुरः ) = सब से प्रथम विद्यमान रह कर  ( जातः ) = इस जगत् में प्रसिद्ध हुआ ( अति अरिच्यत ) = जगत् से अतिरिक्त होता है। ( पश्चात् भूमिम् ) = पीछे पृथिवी और शरीरों को उत्पन्न करता है।

    भावार्थ -

    भावार्थ = परमात्मा से ही सब समष्टिरूप जगत् उत्पन्न होता है। वह प्रभु उस जगत् से पृथक्, उसमें व्याप्त होकर भी, उसके दोषों से लिप्त न होके इस सबका अधिष्ठाता है। ऐसे नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव सदा आनन्द स्वरूप जगदीश की ही उपासना करनी चाहिए।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top