यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 2
तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि।धियो॒ यो नः॑ प्रचो॒दया॑त्॥२॥
स्वर सहित पद पाठतत्। स॒वि॒तुः। वरे॑ण्यम्। भर्गः॑। दे॒वस्य॑। धी॒म॒हि॒। धियः॑। यः। नः॒। प्र॒चो॒दया॒दिति॑ प्रऽचो॒दया॑त् ॥२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तत्सवितुर्वरेण्यम्भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो नः प्रचोदयत् ॥
स्वर रहित पद पाठ
तत्। सवितुः। वरेण्यम्। भर्गः। देवस्य। धीमहि। धियः। यः। नः। प्रचोदयादिति प्रऽचोदयात्॥२॥
भावार्थ -
(सवितुः देवस्य ) सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक और सबके प्रकाशक "प्रभु, परमेश्वर के ( वरेण्यम् ) सर्वश्रेष्ठ पद प्राप्त कराने एवं वरण करने योग्य, (भर्गः ) पापों के भून डालने वाले तेज का हम (धीमहि ) ध्यान करते हैं । (यः) जो (नः) हमारे (धियः) बुद्धियों, कर्मों और वाणियों को ( प्रचोदयात् ) उत्तम मार्ग में प्रेरित करे । शत० १३ । ६ । २ । ९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वामित्रः । सांवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
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