यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 4
वि॒भ॒क्तार॑ꣳ हवामहे॒ वसो॑श्चि॒त्रस्य॒ राध॑सः। स॒वि॒तारं॑ नृ॒चक्ष॑सम्॥४॥
स्वर सहित पद पाठवि॒भ॒क्तार॒मिति॑ विऽभ॒क्तार॑म्। ह॒वा॒म॒हे॒। वसोः॑। चि॒त्रस्य॑। राध॑सः। स॒वि॒तार॑म्। नृ॒चक्ष॑स॒मिति॑ नृ॒ऽचक्ष॑सम् ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विभक्तारँ हवामहे वसोश्चित्रस्य राधसः । सवितारन्नृचक्षसम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
विभक्तारमिति विऽभक्तारम्। हवामहे। वसोः। चित्रस्य। राधसः। सवितारम्। नृचक्षसमिति नृऽचक्षसम्॥४॥
विषय - अद्भुत ऐश्वर्य के विभाजक परमेश्वर और सर्वशासक राजा की स्तुति ।
भावार्थ -
( चित्रस्य) विचित्र, (वसोः) इस पृथ्वी पर बसने वाले चरा- चर जीव संसार के बसाने वाले प्रभु के ( राधसः) धन के ( विभक्तारम् ) विभाग करने वाले, उनको नाना वर्गों, श्रेणियों और कर्मों में विभक्त करने वाले, (नृचक्षसम् ) सब मनुष्यों के द्रष्टा, सर्वसाक्षी, ( सवितारम् ) सर्वोत्पादक, परमेश्वर और सर्वप्रेरक 'सविता' नाम विद्वान् और परमेश्वरकी (हवामहे) हम स्तुति करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मेधातिथिर्ऋषिः । सविता देवता । गायत्री । षड्जः ॥
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