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  • यजुर्वेद - अध्याय 30/ मन्त्र 22
    ऋषिः - नारायण ऋषिः देवता - राजेश्वरौ देवते छन्दः - निचृत्कृतिः स्वरः - निषादः
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    अथै॒तान॒ष्टौ विरू॑पा॒ना ल॑भ॒तेऽति॑दीर्घं॒ चाति॑ह्रस्वं॒ चाति॑स्थूलं॒ चाति॑कृशं॒ चाति॑शुक्लं॒ चाति॑कृष्णं॒ चाति॑कुल्वं॒ चाति॑लोमशं च। अशू॑द्रा॒ऽअब्रा॑ह्मणा॒स्ते प्रा॑जाप॒त्याः। मा॒ग॒धः पुँ॑श्च॒ली कि॑त॒वः क्ली॒बोऽशू॑द्रा॑ऽअब्रा॑ह्मणा॒स्ते प्रा॑जाप॒त्याः॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑। ए॒तान्। अ॒ष्टौ। विरू॑पानिति॒ विऽरू॑पान्। आ। ल॒भ॒ते॒। अति॑दीर्घ॒मित्यति॑ऽदीर्घम्। च॒। अति॑ह्रस्व॒मित्यति॑ऽह्रस्वम्। च॒। अति॑स्थूल॒मित्यति॑ऽस्थूलम्। च॒। अति॑कृश॒मित्यति॑ऽकृशम्। च॒। अति॑शुक्ल॒मित्यति॑ऽशुक्लम्। च॒। अति॑कृष्ण॒मित्यति॑ऽकृष्णम्। च॒। अति॑कुल्व॒मित्यति॑ऽकुल्वम्। च॒। अति॑लोमश॒मित्यति॑ऽलोमशम्। च॒। अशू॑द्राः। अब्रा॑ह्मणाः। ते। प्रा॒जा॒प॒त्या इति॑ प्राजाऽप॒त्याः। मा॒ग॒धः। पुँ॒श्च॒ली। कि॒त॒वः। क्लीबः॒। अशू॑द्राः। अब्रा॑ह्मणाः। ते। प्रा॒जा॒प॒त्या इति॑ प्राजाऽप॒त्याः ॥२२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथैतानष्टौ विरूपानालभतेतिदीर्घञ्चातिह््रस्वञ्चातिस्थूलञ्चातिकृशञ्चातिशुक्लञ्चातिकृष्णञ्चातिकुल्वञ्चातिलोमशञ्च । अशूद्राऽअब्राह्मणास्ते प्राजापत्याः । मागधः पुँश्चली कितवः क्लीबो शूद्राऽअब्राह्मणास्ते प्राजापत्याः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अथ। एतान्। अष्टौ। विरूपानिति विऽरूपान्। आ। लभते। अतिदीर्घमित्यतिऽदीर्घम्। च। अतिह्रस्वमित्यतिऽह्रस्वम्। च। अतिस्थूलमित्यतिऽस्थूलम्। च। अतिकृशमित्यतिऽकृशम्। च। अतिशुक्लामित्यतिऽशुक्लम्। च। अतिकृष्णमित्यतिऽकृष्णम्। च। अतिकुल्वमित्यतिऽकुल्वम्। च। अतिलोमशमित्यतिऽलोमशम्। च। अशूद्राः। अब्राह्मणाः। ते। प्राजापत्या इति प्राजाऽपत्याः। मागधः। पुँश्चली। कितवः। क्लीबः। अशूद्राः। अब्राह्मणाः। ते। प्राजापत्या इति प्राजाऽपत्याः॥२२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 30; मन्त्र » 22
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    भावार्थ -
    ( अथ) और ( एतान् ) इन (अष्टौ ) आठ ( विरूपान् ) विकृत रूप वाले पुरुषों को (आलभते) राजा अपने अधीन रक्खे | (अतिदीर्घम् ) बहुत अधिक लम्बा, ( अतिह्नस्वं च ) बहुत छोटा, बौना, (अतिकृशं च) बहुत दुबला, पतला, (अतिशुक्कुं च) बहुत श्वेत, अति गौर, ( अतिकृष्णं च ) बहुत ही काला (अति लोमशं च) बहुत अधिक लोम गला । ये आठ विचित्र होने से संग्रह करने योग्य हैं । यदि ये (अशूद्राः) शूद्र कर्म करने वाले न हों और (अब्राह्मणाः) ब्राह्मण के काम करने वाले विद्वान् भी न हों तो (ते) वे ( प्राजापत्याः) प्रजापालक राजा के ही अधीन उसकी सम्पत्ति एवं भरण-पोषण योग्य जीव समझे जायं । इसी प्रकार (अशूद्राः अब्राह्मणाः) शूद्र और ब्राह्मण के काम के अयोग्य (मागधः) स्तुति पाठक या नृशस, घोर लोभी (पुंश्चली) पुरुषों के भीतर व्यभिचार का जीवन बिताने वाली, चञ्चल नारी, (कितबः) जुआखोर और (क्लीब: ) नपुंसक (ते) ये चारों भी ( प्राजापत्याः) प्रजापालक राजा के ही अधीन रहें । अर्थात् यदि ये ब्राह्मणोचित्त ज्ञान, सदाचार का जीवन और शूद्रवत् श्रम का जीवन बिता सकें तो राजा इनको अपने अधीन न ले । ये क्षत्रियों में रह नहीं सकते क्योंकि स्तुतिपाठक, खुशामदी जुआचोर, व्यभिचारी पुरुषों से क्षात्र कर्म नहीं हो सकता। किसी व्यापार में ये लग नहीं सकते । व्यभिचारी, जुआखोरी से असत्य व्यवहार और दुराचार बढ़ता है, इसलिये ऐसों को राजा अपने नियन्त्रण में रक्खे । मागध को बन्दी बनाकर स्तुतिपाठ के लिये रक्खे । 'कितव' को क्रीड़ा के लिये, पुंश्चली की सेवा के लिये, क्लीब को अन्तःपुर की भृत्यता के लिये रखे । इस प्रकार उनको भी योग्य कामों में लगाये रखे जिससे वे जीवन बुरे कर्मों में व्यय न करें । अथवा, ऐसे व्यक्तियों को अलग कैद में रक्खे जिससे ये चारादि में न फैला सकें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - राजेश्वरौ । निचृत् कृतिः । निषादः ॥

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