यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 11
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
1
य॒माय॑ त्वा म॒खाय॑ त्वा॒ सूर्य्य॑स्य त्वा॒ तप॑से।दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता मध्वा॑नक्तु पृथि॒व्याः सꣳस्पृश॑स्पाहि।अ॒र्चिर॑सि शो॒चिर॑सि॒ तपो॑ऽसि॥११॥
स्वर सहित पद पाठय॒माय॑। त्वा॒। म॒खाय॑। त्वा॒। सूर्य्य॑स्य। त्वा॒। तप॑से। दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। मध्वा॑। अ॒न॒क्तु॒। पृ॒थि॒व्याः। स॒ꣳस्पृश॒ इति॑ स॒म्ऽस्पृशः॑। पा॒हि॒। अ॒र्चिः। अ॒सि॒। शो॒चिः। अ॒सि॒। तपः॑। अ॒सि॒ ॥११ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यमाय त्वा मखाय त्वा सूर्यस्य त्वा तपसे देवस्त्वा सविता मध्वानक्तु पृथिव्याः सँस्पृशस्पाहि । अर्चिरसि शोचिरसि तपो सि ॥
स्वर रहित पद पाठ
यमाय। त्वा। मखाय। त्वा। सूर्य्यस्य। त्वा। तपसे। देवः। त्वा। सविता। मध्वा। अनक्तु। पृथिव्याः। सꣳस्पृश इति सम्ऽस्पृशः। पाहि। अर्चिः। असि। शोचिः। असि। तपः। असि॥११॥
विषय - अश्व,शकृत् से धूपन का रहस्य।
भावार्थ -
हे विद्वन् ! वीर पुरुष ! ( यमाय ) सूर्य जिस प्रकार ग्रह, उपग्रहों और पृथ्वी आदि को अपने नियम में रखता है उसी प्रकार - समस्त राष्ट्र को नियम में रखने वाले पद के लिये (त्वा मखाय) पूजनीय उत्तम प्रजापति पद के लिये तुझको (सूर्यस्य तपसे त्वा) सूर्य के समान -संतापन करने में समर्थ 'तपस्' पद के लिये नियुक्त करता हूँ । ( सविता ) - सर्वोत्पादक, सर्वप्रेरक, परमेश्वर (त्वा) तुझको ( मध्वा) मधुर अन्न भादि ऐश्वर्य और शत्रुपीड़क बल से (आनक्तु ) युक्त करे । हे विद्वन् ! तु उस चीर पुरुष को ( पृथिव्याः संस्पृशः) भूमि पर स्पर्श होने से अर्थात् उसे - सामान्य जनों में अनाहत होने से ( पाहि) बचा । अथवा हे राजन् ! तु राष्ट्र की पृथिवी पर आक्रमण करने वाले शत्रु से बचा । तू (अर्चि: असि) अग्नि की ज्वाला के समान दाहकारी है । (शोचिः असि) विद्युत् की दीप्ति के समान संतापकारी है । तू (तपः असि) सूर्य के ताप के समान तपस्वी, संतापकारी और धर्मात्मा है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - दध्यङ् आथर्वणः । धर्मः सविता | त्रिष्टुप् । धैवतः
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