यजुर्वेद - अध्याय 37/ मन्त्र 14
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - ईश्वरो देवता
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
1
गर्भो॑ दे॒वानां॑ पि॒ता म॑ती॒नां पतिः॑ प्र॒जाना॑म्।सं दे॒वो दे॒वेन॑ सवि॒त्रा ग॑त॒ सꣳसूर्य्येण रोचते॥१४॥
स्वर सहित पद पाठगर्भः॑। दे॒वाना॑म्। पि॒ता। म॒ती॒नाम्। पतिः॑। प्र॒जाना॒मिति॑ प्र॒ऽजाना॑म् ॥ सम्। दे॒वः। दे॒वेन॑। स॒वि॒त्रा। ग॒त॒। सम्। सूर्य्ये॑ण। रो॒च॒ते॒ ॥१४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गर्भो देवानाम्पिता मतीनाम्पतिः प्रजानाम् । सन्देवो देवेन सवित्रा गत सँ सूर्येण रोचते ॥
स्वर रहित पद पाठ
गर्भः। देवानाम्। पिता। मतीनाम्। पतिः। प्रजानामिति प्रऽजानाम्॥ सम्। देवः। देवेन। सवित्रा। गत। सम्। सूर्य्येण। रोचते॥१४॥
विषय - तेजस्वी रक्षक पुरुष का स्वरूप।
भावार्थ -
सेनापति और राजा के पक्ष में- ( देवानां गर्भः ) देव, विजयशील वीर सैनिकों और विद्वानों, शासकों को अपने अधीन ग्रहण करने वाले सूर्य के समान, ( पिता मतीनाम् ) मननशील, मेधावी, पुरुषों का पालक, (प्रजानाम् पतिः) प्रजाओं का स्वामी ( देवः ) दानशील, तेजस्वी विजयी होकर (सवित्रा ) सब संसार के प्रेरक (सूर्येण देवेन) सूर्य देव के समान ( संगत) पृथ्वी से भली प्रकार युक्त होता है और (संरोचते) उसी के समान प्रकाशित होता है । (२) ईश्वर के पक्ष में- ईश्वर तेजस्वी समस्त सूर्य आदि पदार्थों के भीतर व्यापक, सबको अपने भीतर लेने वाला, सविता, सूर्य के समान प्रकाशित है।
टिप्पणी -
अथातो 'मा मा हिंसी:' । (२०) इत्यन्तं महावरिपरिक्रमणम् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ईश्वरः । भुरिगनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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