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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 4
    सूक्त - वेनः देवता - ब्रह्मात्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - परमधाम सूक्त

    परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी स॒द्य आ॑य॒मुपा॑तिष्ठे प्रथम॒जामृ॒तस्य॑। वाच॑मिव व॒क्तरि॑ भुवने॒ष्ठा धा॒स्युरे॒ष न॒न्वे॑३षो अ॒ग्निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । स॒द्य: । आ॒य॒म् । उप॑ । आ॒ऽति॒ष्ठे॒ । प्र॒थ॒म॒ऽजाम् । ऋ॒तस्य॑ ।वाच॑म्ऽइव । व॒क्तरि॑ । भु॒व॒ने॒ऽस्था: । धा॒स्यु: । ए॒ष: । न॒नु । ए॒ष: । अ॒ग्नि: ॥१.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि द्यावापृथिवी सद्य आयमुपातिष्ठे प्रथमजामृतस्य। वाचमिव वक्तरि भुवनेष्ठा धास्युरेष नन्वे३षो अग्निः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । द्यावापृथिवी इति । सद्य: । आयम् । उप । आऽतिष्ठे । प्रथमऽजाम् । ऋतस्य ।वाचम्ऽइव । वक्तरि । भुवनेऽस्था: । धास्यु: । एष: । ननु । एष: । अग्नि: ॥१.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    ( द्यावापृथिवी ) द्युलोक और पृथिवी लोक का (परि) परित्याग कर मैं (सद्यः) शीघ्र ही (आयम्) इस ब्रह्म की ओर आया हूँ और (ऋतस्य) सत्य नियमों के (प्रथमजाम्) प्रथमोत्पादक का (उपातिष्ठे) उपस्थान अर्थात् उपासना करता हूँ। (वक्तरि) वक्ता में (वाचम् इव) वाणी जैसे अव्यक्तरूप से स्थित रहती है वैसे ही यह ब्रह्म (भुवनेष्ठः) सब भुवनों में स्थित है, (एषः) यह ब्रह्म (धास्युः) जगद्धारण की इच्छा से भुवनों में स्थित है, ( ननु ) निश्चय से (एषः) यह ब्रह्म (अग्निः) अग्नि नाम वाला है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वेन ऋषिः । ब्रह्मात्मा देवता । १, २, ४ त्रिष्टुभः | ३ जगती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥

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