अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
वे॒नस्तत्प॑श्यत्पर॒मं गुहा॒ यद्यत्र॒ विश्वं॒ भव॒त्येक॑रूपम्। इ॒दं पृश्नि॑रदुह॒ज्जाय॑मानाः स्व॒र्विदो॑ अ॒भ्य॑नूषत॒ व्राः ॥
स्वर सहित पद पाठवे॒न: । तत् । प॒श्य॒त् । प॒र॒मम् । गुहा॑ । यत् । यत्र॑ । विश्व॑म् । भव॑ति । एक॑ऽरूपम् । इ॒दम् । पृश्नि॑: । अ॒दु॒ह॒त् । जाय॑माना: । स्व॒:ऽविद॑: । अ॒भि । अ॒नू॒ष॒त॒ । व्रा: ॥ १.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वेनस्तत्पश्यत्परमं गुहा यद्यत्र विश्वं भवत्येकरूपम्। इदं पृश्निरदुहज्जायमानाः स्वर्विदो अभ्यनूषत व्राः ॥
स्वर रहित पद पाठवेन: । तत् । पश्यत् । परमम् । गुहा । यत् । यत्र । विश्वम् । भवति । एकऽरूपम् । इदम् । पृश्नि: । अदुहत् । जायमाना: । स्व:ऽविद: । अभि । अनूषत । व्रा: ॥ १.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
विषय - परमात्मदर्शन ।
भावार्थ -
(यत्) जो ब्रह्म ( गुहा) गुहा में, हृदय में और समस्त ब्रह्माण्ड रूप गुहा में व्यापक या अज्ञायमान स्वरूप है (परमं) तथा सर्वोत्कृष्ट है (तत्) उसको ( वेनः ) ज्ञान ज्योतिर्मय विद्वान् योगी (पश्यत्) साक्षात् करता है (यत्र) जिस ब्रह्म में (विश्वं) समस्त संसार (एकरूपम्) एकरूप, प्रलयकाल में एकाकार (भवति) हो जाता है, (पृश्निः) नाना वर्णों से स्पष्ट प्रकृति ने (इदं) इस ब्रह्म का (अदुहत्) दोहन किया है। अर्थात् ब्रह्म के ज्ञान के दो प्रकार हैं। एक तो अन्तर्ध्यान और दूसरा प्रकृति के रहस्यों का खोजना। प्रकृति के नाना रूपों में छिपे हुए ब्रह्म के ज्ञान का यहां वर्णन है । प्रकृति मानो अपने नाना रूपों तथा विषयों द्वारा ब्रह्मसम्बन्धी ज्ञानदुग्ध अन्वेषकों को पिला रही है । (जायमानाः) उत्पन्न होते हुए सिद्ध (व्राः) जिन्होंने कि उस ब्रह्म को ध्येय रूप से वरण किया है इस प्रकार प्रकृति के रहस्यों द्वारा ब्रह्म को जान कर (स्वर्विदः) और जो प्रकाशस्वरूप उस मोक्षसुख को जाने हुए या प्राप्त किये हुए हैं वे ब्रह्म की (अभि अनूषत्) साक्षात् स्तुति करते हैं ।
टिप्पणी -
वेनस्तत्पश्यन् निहितं गुहा सद् यत्र वश्वं भवत्येकनीऽम्। तस्मिन्निन्द्रं संच विचैति सर्वे स ओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु इति यजु०। तत्र स्वयंभु ब्रह्मऋषिः । परमात्मा देवता। (प्र०) ‘वेनस्तत् पश्यन् परंपदम्’ (द्वि०) ‘भवत्येक नडम्’ (तृ०) ‘इदं धेनुरदुहद्’ (च०) स्वर्विदोऽभ्यनुक्तिर्विराट् इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वेन ऋषिः । ब्रह्मात्मा देवता । १, २, ४ त्रिष्टुभः | ३ जगती । चतुर्ऋचं सूक्तम् ॥
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