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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 1
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - चतुष्पदा विराड्गायत्री सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त

    दूष्या॒ दूषि॑रसि हे॒त्या हे॒तिर॑सि मे॒न्या मे॒निर॑सि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दूष्या॑: । दूषि॑: । अ॒सि॒ । हे॒त्या: । हे॒ति: । अ॒सि॒ । मे॒न्या: । मे॒नि: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूष्या दूषिरसि हेत्या हेतिरसि मेन्या मेनिरसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूष्या: । दूषि: । असि । हेत्या: । हेति: । असि । मेन्या: । मेनि: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    हे राजन् ! ( दूष्याः ) प्रजा में द्रोह करने हारी शत्रुमन्त्रणा को ( दूषिः ) तू विनाश करने वाला (असि) है । ( हेत्याः ) हनन करने हारे हथियार का भी ( हेतिः ) प्रतिहनन करने हारा तू हथियार रूप ही (असि) है और ( मेन्याः ) अस्त्र द्वारा फेंके गये घातक साधन का भी तू ( मेनिः ) निवारक अस्त्र ही (असि) है। जब तू स्वयं इतना बलवान् है और अपने आगे आने वाले सब कष्टों को हटाने में समर्थ हैं तब ( श्रेयांस ) सबसे श्रेष्ठ मार्ग और पदार्थ को ( प्राप्नुहि ) प्राप्त कर और ( समं ) अपने समान बलशाली शत्रु को ( अति क्राम ) लांघ जा अथवा ( श्रेयांस आप्नुहि ) कल्याणकारी बलवान् धार्मिक पुरुष का आश्रय ले और अपने समान बल वाले शत्रु को ( अतिक्राम ) विजय करले ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः । कृत्यादूषणं देवता । कृत्यापरिहरणसूक्तम् । स्त्रात्तयमणेः सर्वरूपस्तुतिः । १ चतुष्पदा विराड् गायत्री । २-५ त्रिपदाः परोष्णिहः । ४ पिपीलिकामध्या निचृत् । पञ्चर्चं सूक्तम् ।

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