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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 5
    सूक्त - शुक्रः देवता - कृत्यादूषणम् छन्दः - त्रिपदापरोष्णिक् सूक्तम् - श्रेयः प्राप्ति सूक्त

    शु॒क्रोऽसि॑ भ्रा॒जोऽसि॒ स्व॑रसि॒ ज्योति॑रसि। आ॑प्नु॒हि श्रेयां॑स॒मति॑ स॒मं क्रा॑म ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शु॒क्र: । अ॒सि॒ । भ्रा॒ज: । अ॒सि॒ । स्व᳡: । अ॒सि॒ । ज्योति॑: । अ॒सि॒ । आ॒प्नु॒हि । श्रेयां॑सम् । अति॑ । स॒मम् । क्रा॒म॒ ॥११.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शुक्रोऽसि भ्राजोऽसि स्वरसि ज्योतिरसि। आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्राम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शुक्र: । असि । भ्राज: । असि । स्व: । असि । ज्योति: । असि । आप्नुहि । श्रेयांसम् । अति । समम् । क्राम ॥११.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे राजन् ! ( शुक्रः, असि ) तू राजा होने योग्य, तेज और कान्ति को धारण करने वाला है। (भ्राजः असि) तू शत्रुओं को भून डालने वाला, ग्रीष्म के सूर्य के समान है। (स्वः असि) तू सबका प्रकाशक, उपदेशक, शत्रु का उपतापक या पीड़क है। (ज्योतिः असिः) और स्वयं तेजस्वी और यशस्वी है। ( श्रेयांसम् आप्नुहि ) इसलिये सबसे श्रेष्ठ पद को प्राप्त कर और ( समम् अति काम ) समान बलके प्रतिस्पर्धी को पार कर जा । इस सूक्त में राजा के चुनने और स्वयं श्रेष्ठ पद को प्राप्त करने के लिये उचित योग्य गुणों का उपदेश किया गया है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः । कृत्यादूषणं देवता । कृत्यापरिहरणसूक्तम् । स्त्रात्तयमणेः सर्वरूपस्तुतिः । १ चतुष्पदा विराड् गायत्री । २-५ त्रिपदाः परोष्णिहः । ४ पिपीलिकामध्या निचृत् । पञ्चर्चं सूक्तम् ।

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