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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - विराडनुष्टुप् सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन

    नम॑स्ते॒ लाङ्ग॑लेभ्यो॒ नम॑ ईषायु॒गेभ्यः॑। वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नम॑: । ते॒ । लाङ्ग॑लेभ्य: । नम॑: । ई॒षा॒ऽयु॒गेभ्य॑: । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नम ईषायुगेभ्यः। वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नम: । ते । लाङ्गलेभ्य: । नम: । ईषाऽयुगेभ्य: । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    हे योगिन् ( ते ) तेरे ( लाङ्गलेभ्यः ) जिस प्रकार उत्तम लता के बीज वपन करने के लिये क्षेत्र को सुधारने के लिये हल आवश्यक है उसी प्रकार चित्तभूमि को गोड़ने के लिये और उसमें विज्ञानरूप ब्रह्मज्ञानमय बीज वपन करने के लिये अपेक्षित जो योग के आठ अंग-यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा, समाधि रूप लाङ्गल अर्थात् हल हैं उनको ( नमः ) हम आदर की दृष्टि से देखते और उनकी साधना करते हैं और ( ईषायुगेभ्यः ) हल को खैंचने के लिये जिस प्रकार उसमें ‘ईषा’ नामक दण्ड और बैलों को जोड़ने के लिये जुआ लगा होता है उसी प्रकार यहां दो प्राण, आत्मा और बुद्धि या आत्मा और परमात्मा दोनों को जोड़ने के लिये ईषा=मानस प्रेरणा रूप चितिशक्ति द्वारा योग करने हारे योगी जनों को भी ( नमः ) नमस्कार है। उनकी शिक्षा से ( क्षेत्रियनाशनी वीरुत् ) देहबन्धन को काट डालने वाली ब्रह्मानन्द वल्ली ( क्षेत्रियम् अप उच्छतु ) आत्मा को बन्धन से मुक्त करे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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