अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - निचृत्पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
नमः॑ सनिस्रसा॒क्षेभ्यो॒ नमः॑ संदे॒श्ये॑भ्यः। नमः॒ क्षेत्र॑स्य॒ पत॑ये वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । स॒नि॒स्र॒स॒ऽअ॒क्षेभ्य॑: । नम॑: । स॒म्ऽदे॒श्ये᳡भ्य: । नम॑: । क्षेत्र॑स्य । पत॑ये । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नमः सनिस्रसाक्षेभ्यो नमः संदेश्येभ्यः। नमः क्षेत्रस्य पतये वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । सनिस्रसऽअक्षेभ्य: । नम: । सम्ऽदेश्येभ्य: । नम: । क्षेत्रस्य । पतये । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
विषय - आत्मज्ञान ।
भावार्थ -
( सनिस्त्रसाक्षेभ्यः ) जिनके अक्ष=अर्थात् इन्द्रियों के वेग शान्त हो गये हैं ऐसे जितेन्द्रिय, योगाभ्यासी, परम ब्रह्मज्ञानियों को ( नमः ) नमस्कार है । ( संदेश्येभ्यः ) जिनके देहरूप देश, भोगायतन जीर्ण होगये हैं या जो आत्मज्ञान का उत्तम रूप से उपदेश करते हैं उनको भी ( नमः ) नमस्कार है और (क्षेत्रस्य) विनाशशील अथवा आत्मा के निवास योग्य इस देह और इस ब्रह्माण्ड के स्वामी आत्मा और परमात्मा को भी ( नमः ) साक्षात् आदरपूर्वक नमस्कार है । ( वीरुत् क्षेत्रियनाशनी ) यह ब्रह्मानन्दवल्ली देहबन्धन को नाश करती है वह ( क्षेत्रियम् अप उच्छतु ) जीवात्मा को बन्धन से मुक्त करे ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
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