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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 8

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन

    उद॑गातां॒ भग॑वती वि॒चृतौ॒ नाम॒ तार॑के। वि क्षे॑त्रि॒यस्य॑ मुञ्चतामध॒मं पाश॑मुत्त॒मम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒गा॒ता॒म् । भग॑वती॒ इति॒ भग॑ऽवती । वि॒ऽचृतौ॑ । नाम॑ । तार॑के॒ इति॑ ।वि । क्षे॒त्रि॒यस्य॑ । मु॒ञ्च॒ता॒म् । अ॒ध॒मम् । पाश॑म् । उ॒त्ऽत॒मम् ॥८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदगातां भगवती विचृतौ नाम तारके। वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अगाताम् । भगवती इति भगऽवती । विऽचृतौ । नाम । तारके इति ।वि । क्षेत्रियस्य । मुञ्चताम् । अधमम् । पाशम् । उत्ऽतमम् ॥८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    शक्तिसम्पन्न (विचृतौ) विविध रोगों के विनाशक (तारके) तराने वाले प्राण और अपान जब ( उद् अगातां ) ऊर्ध्व गति करते हैं तब ( क्षेत्रियस्य ) क्षेत्र = वर्तमान देह में रहने हारे आत्मा के ( अधमं ) मनुष्य-योनि की अपेक्षा नीच तिर्यक् आदि योनि में लेजाने वाले (पाशं ) कर्मजाल पाप कर्म्मबन्धन को और ( उत्तमं पाशं ) पुण्यकर्मों के फलरूप देव लोकादि शुभ कर्म-बन्धन को (विमुचतां) तोड़ डालते है । अथवा देवयान और पितृयान नामक दुःखनाशक ‘तारक विचृत्’ दो सृति, सरणि या दो पन्था हैं, वे दोनों मार्ग अधम तिर्यग्-योनि और उत्तम देवयोनियों के पाश से मुक्त करावें। अथवा अविद्या और विद्या दो तारका हैं जिनसे आत्मा अधमपाश अर्थात् अधर्म, दुष्ट कर्मजाल, मृत्यु और उत्तम पाश अर्थात् परोपकार आदि से भी कुछ काल के लिये मुक्त हो जाता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वंगिरा ऋषिः। यक्ष्मनाशनो वनस्पतिर्देवता। मन्त्रोक्तदेवतास्तुतिः। १, २, ५ अनुष्टुभौ। ३ पथ्यापंक्तिः। ४ विराट्। पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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