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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 10

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    सूक्त - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त

    स॑मु॒द्राज्जा॒तो म॒णिर्वृ॒त्राज्जा॒तो दि॑वाक॒रः। सो अ॒स्मान्त्स॒र्वतः॑ पातु हे॒त्या दे॑वासु॒रेभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रात् । जा॒त: । म॒णि: । वृ॒त्रात् । जा॒त: । दि॒वा॒ऽक॒र: । स: । अ॒स्मान् । स॒र्वत॑: । पा॒तु॒ । हे॒त्या: । दे॒व॒ऽअ॒सु॒रेभ्य॑: ॥१०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्राज्जातो मणिर्वृत्राज्जातो दिवाकरः। सो अस्मान्त्सर्वतः पातु हेत्या देवासुरेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रात् । जात: । मणि: । वृत्रात् । जात: । दिवाऽकर: । स: । अस्मान् । सर्वत: । पातु । हेत्या: । देवऽअसुरेभ्य: ॥१०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    वह शंख रूप आत्मा (मणिः) प्रकाशस्वरूप होकर भी (समुद्रात्) समुद्र से उत्पन्न मणि के समान उस ज्ञान और ज्योति के परम सागर से (जातः) ज्ञान और ज्योति को प्राप्त करता है। और (वृत्रात् जातः दिवाकरः) जिस प्रकार मेघ के आवरण से मुक्त होकर सूर्य अपने तापकारी किरणों से चमकने लगता है उसी प्रकार अज्ञान के आवरण से मुक्त होकर आदित्य रूप होकर वह आत्मा चमकने लगता है। वह आदित्य रूप ज्ञानवान् आत्मा (देवासुरेभ्यः) देवों=ज्ञान-इन्द्रियगण और असुर = प्राणेन्द्रियों से हमें अपने (हेत्या) विषय-वासनाओं को मार गिराने वाले ज्ञानवज्र द्वारा (नः) हमारी (पातु) रक्षा करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। शंखमणिशुक्तयो देवताः। १-५ अनुष्टुभः, ६ पथ्यापंक्तिः, ७ पचपदा परानुष्टुप् शक्वरी । सप्तर्चं सूक्तम्।

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