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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 14

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    सूक्त - भृगुः देवता - आज्यम्, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - स्वर्ज्योति प्राप्ति सूक्त

    अग्ने॒ प्रेहि॑ प्रथ॒मो दे॒वता॑नां॒ चक्षु॑र्दे॒वाना॑मु॒त मानु॑षाणाम्। इय॑क्षमाणा॒ भृगु॑भिः स॒जोषाः॒ स्व॑र्यन्तु॒ यज॑मानाः स्व॒स्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । प्र । इ॒हि॒ । प्र॒थ॒म: । दे॒वता॑नाम् । चक्षु॑: । दे॒वाना॑म् । उ॒त । मानु॑षाणाम् । इय॑क्षमाणा: । भृगु॑ऽभि: । स॒ऽजोषा॑: । स्व᳡: । य॒न्तु॒ । यज॑माना: स्व॒स्ति ॥१४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने प्रेहि प्रथमो देवतानां चक्षुर्देवानामुत मानुषाणाम्। इयक्षमाणा भृगुभिः सजोषाः स्वर्यन्तु यजमानाः स्वस्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । प्र । इहि । प्रथम: । देवतानाम् । चक्षु: । देवानाम् । उत । मानुषाणाम् । इयक्षमाणा: । भृगुऽभि: । सऽजोषा: । स्व: । यन्तु । यजमाना: स्वस्ति ॥१४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 14; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    हे अग्ने ! परमात्मन् ! आप (देवतानां) समस्त दिव्य गुण वाले, महत् आदि विशाल वैकारिक पदार्थों और समस्त विद्वानों से (प्रथमः) पूर्व विद्यमान, सब से श्रेष्ठ हैं। आप (प्रेहि) हमारे हृदय में प्रकट होइये। आप (देवनाम्) देवों और विद्वानों के (उत) और (मानुषाणाम्) मनुष्यों के (चक्षुः) यथार्थ प्रकाशक हैं। (यजमानाः) यज्ञ करने हारे, पुण्यात्मा लोग (भृगुभिः) पापों को भून डालने वाले या परिपक्व ज्ञान सम्पन्न, वेद के विद्वानों के साथ (इयक्षमाणाः) यज्ञों का सम्पादन करते हुए (सजोषाः) परस्पर सामान भाव से प्रीतिपूर्वक रहते हुए (स्वस्ति) अपने खल्याण के लिये (स्वः यन्तु) स्वर्ग लोक में और सुख का भोग करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृगुर्ऋषिः। आाज्यमग्निर्वा देवता। १, २, ६ त्रिष्टुभः। २, ४ अनुष्टुभौ,३ प्रस्तार पंक्तिः। ७, ९ जगत्यौ। ८ पञ्चपदा अति शक्वरी। नवर्चं सूक्तम्॥

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