अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
प्र॒जाव॑तीः सू॒यव॑से रु॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒पः सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः। मा व॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो रु॒द्रस्य॑ हे॒तिर्वृ॑णक्तु ॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒जाऽव॑ती: । सु॒ऽयव॑से । रु॒शन्ती॑: । शु॒ध्दा: । अ॒प: । सु॒ऽप्र॒पा॒ने । पिब॑न्ती: । मा । व॒: । स्ते॒न: । ई॒श॒त॒ । मा । अ॒घऽशं॑स: । परि॑ । व॒: । रु॒द्रस्य॑ । हे॒ति: । वृ॒ण॒क्तु॒ ॥२१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रजावतीः सूयवसे रुशन्तीः शुद्धा अपः सुप्रपाणे पिबन्तीः। मा व स्तेन ईशत माघशंसः परि वो रुद्रस्य हेतिर्वृणक्तु ॥
स्वर रहित पद पाठप्रजाऽवती: । सुऽयवसे । रुशन्ती: । शुध्दा: । अप: । सुऽप्रपाने । पिबन्ती: । मा । व: । स्तेन: । ईशत । मा । अघऽशंस: । परि । व: । रुद्रस्य । हेति: । वृणक्तु ॥२१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 7
विषय - गो-कीर्तन।
भावार्थ -
(सुयवसे) उत्तम तृण आदि चारा से युक्त देश में (रुशन्तीः) शोभा देती हुई, तृणादि खाती हुई (प्रजावतीः) प्रजा, उतम सन्तति से युक्त (सु-प्रपाणे) उत्तम जल-पान करने के स्थान में (शुद्धाः अपः) शुद्ध जलों का (पिबन्तीः) पान करती हुई (वः) तुम गौओं को (स्तेनः) चोर (मा ईशत) न चुरा ले और (अघशंसः) पापकर्मा, पापी पुरुष भी तुम पर वश न करे। (रुद्रस्य हेतिः) रुद्र परमेश्वर का या पशुपालक का (हेतिः) आयुध, वज्र (वः) तुम्हें (परि वृणक्तु) छोड़ दे। अर्थात् रौद्र-जन का शस्त्र तुम पर न गिरे।
अध्यात्म पक्ष में—सुयवस = भोग्य विषय में विचरती एवं आनन्द स्थलों में शुद्ध रसों को प्राप्त करती हुई इन सन्तान युक्त इन्द्रियों और घर में स्त्रियों पर स्तेन = चोर, काम, अघशंस = क्रोध वश न करे। रुद्ररूप परमेश्वर की दण्ड-व्यवस्था से भय खाकर वे पापवृत्तियों से सदा दूर रहें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। गौदेवताः। २-४ जगत्यः, १, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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