अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 39/ मन्त्र 9
अ॒ग्नाव॒ग्निश्च॑रति॒ प्रवि॑ष्ट॒ ऋषी॑णां पु॒त्रो अ॑भिशस्ति॒पा उ॑। न॑मस्का॒रेण॒ नम॑सा ते जुहोमि॒ मा दे॒वानां॑ मिथु॒या क॑र्म भा॒गम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्नौ । अ॒ग्नि: । च॒र॒ति॒ । प्रऽवि॑ष्ट: । ऋषी॑णाम् । पु॒त्र: । अ॒भि॒श॒स्ति॒ऽपा: । ऊं॒ इति॑ । न॒म॒:ऽका॒रेण॑ । नम॑सा । ते॒ । जु॒हो॒मि॒ । मा । दे॒वाना॑म् । मि॒थु॒या । क॒र्म॒ । भा॒गम् ॥३९.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नावग्निश्चरति प्रविष्ट ऋषीणां पुत्रो अभिशस्तिपा उ। नमस्कारेण नमसा ते जुहोमि मा देवानां मिथुया कर्म भागम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्नौ । अग्नि: । चरति । प्रऽविष्ट: । ऋषीणाम् । पुत्र: । अभिशस्तिऽपा: । ऊं इति । नम:ऽकारेण । नमसा । ते । जुहोमि । मा । देवानाम् । मिथुया । कर्म । भागम् ॥३९.९॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 39; मन्त्र » 9
विषय - विभूतियों और समृद्धियों को प्राप्त करने की साधना।
भावार्थ -
(अग्नौ) उपरोक्त अग्नि आदि पदार्थों में (अग्निः) ज्ञानस्वरूप, सर्वप्रकाशक परमात्मा (प्रविष्टः चरति) भीतर अन्तर्यामी होकर व्यापक है। और वही (ऋषीणां पुत्रः) समस्त मन्त्रद्रष्टा ऋषियों को शरीर और मानस दुःखों से बचाने वाला है। वही (अभिशस्तिपा उ) सब पाप और निन्दा से रक्षा करता है। हे परमात्मन् ! (ते) तुझे मैं (नमसा) बड़े आदर से झुक कर (नमस्कारेण) ‘नमः’ इस प्रकार के आदर सूचक पद उच्चारण करके (जुहोमि) अपने को तेरे समर्पण करता हूँ। हे पुरुषो ! हम लोग (देवानां भागं) विद्वान् लोगों के सेवन करने योग्य उपदेश को (मिथुया) मिथ्या रूप से (मा कर्म) न करें। अर्थात् अनादर या दिखावा बना कर उत्तम काम न करें, प्रत्युत सत्य भाव से उत्तम कामों को करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। संनतिर्देवता। १, ३, ५, ७ त्रिपदा महाबृहत्यः, २, ४, ६, ८ संस्तारपंक्तयः, ९, १० त्रिष्टुभौ। दशर्चं सूक्तम्॥
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