अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 3
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
आवि॑ष्टिता॒घवि॑षा पृदा॒कूरि॑व॒ चर्म॑णा। सा ब्रा॑ह्म॒णस्य॑ राजन्य तृ॒ष्टैषा गौर॑ना॒द्या ॥
स्वर सहित पद पाठआऽवि॑ष्टिता । अ॒घऽवि॑षा । पृ॒दा॒कू:ऽइ॑व । चर्म॑णा । सा । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । रा॒ज॒न्य॒ । तु॒ष्टा । ए॒षा । गौ: । अ॒ना॒द्या ॥१८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आविष्टिताघविषा पृदाकूरिव चर्मणा। सा ब्राह्मणस्य राजन्य तृष्टैषा गौरनाद्या ॥
स्वर रहित पद पाठआऽविष्टिता । अघऽविषा । पृदाकू:ऽइव । चर्मणा । सा । ब्राह्मणस्य । राजन्य । तुष्टा । एषा । गौ: । अनाद्या ॥१८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
पूर्वोक्त ब्राह्मण की गौ के खाने का दुष्परिणाम बतलाते हैं—हे (राजन्य) राजन् ! (एषा) यह (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (गौः) गौ (अनाद्या) खाने योग्य नहीं, यह हजम नहीं होगी क्योंकि (सा) वह तो (तृष्टा) प्यासी, (पृदाकू: इव) नागिन के समान, (अघ-विषा) पापमय विष से भरी (चर्मणा) कांचुली से (आविष्टिता) ढकी है, इस पर मुंह मत मार। अर्थात् ब्राह्मण-प्रजा पर और ब्राह्मणों की सम्पत्ति और उनकी विद्या पर आघात मत कर।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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