अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
नैतां ते॑ दे॒वा अ॑ददु॒स्तुभ्यं॑ नृपते॒ अत्त॑वे। मा ब्रा॑ह्म॒णस्य॑ राजन्य॒ गां जि॑घत्सो अना॒द्याम् ॥
स्वर सहित पद पाठन । ए॒ताम् । ते॒ । दे॒वा: । अ॒द॒दु॒: । तुभ्य॑म् । नृ॒ऽप॒ते॒ । अत्त॑वे । मा । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । रा॒ज॒न्य॒ । गाम् । जि॒घ॒त्स॒:। अ॒ना॒द्याम् ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
नैतां ते देवा अददुस्तुभ्यं नृपते अत्तवे। मा ब्राह्मणस्य राजन्य गां जिघत्सो अनाद्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठन । एताम् । ते । देवा: । अददु: । तुभ्यम् । नृऽपते । अत्तवे । मा । ब्राह्मणस्य । राजन्य । गाम् । जिघत्स:। अनाद्याम् ॥१८.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 1
विषय - ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ -
विद्या, प्रजा, पृथ्वी और गौ ये सब ब्राह्मण, विद्वान् पुरुष की गौ हैं। उसका मारना, खा लेना आदि किसी को करना उचित नहीं, इसी विषय का इस सूक्त में उपदेश करते हैं—हे (नृपते) समस्त नरों, मनुष्यों के परिपालक राजन् ! (ते देवाः) वे विद्वान् लोग (ते) तुझे राज्याभिषेक करते समय (एताम्) इस ब्राह्मण की गौ = पृथिवी और उस पर रहने वाली प्रजा और उनके गौ आदि पशु सब को (अत्तवे) खा डालने के लिये (न अददुः) नहीं देते हैं। हे (राजन्य) राजन् ! (अनाद्याम्) न खाने योग्य (ब्राह्मणस्य गां) ब्राह्मण की गौ को (मा जिघत्सः) मत खा, मत मार। राजा लोक-प्रजा की रक्षा करे न कि उनका खून चूसे और न उनको मृगों को सिंह के समान मार कर खावे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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