अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 31/ मन्त्र 10
सूक्त - शुक्रः
देवता - कृत्याप्रतिहरणम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - कृत्यापरिहरण सूक्त
अप॑थे॒ना ज॑भारैणां॒ तां प॒थेतः प्र हि॑ण्मसि। अधी॑रो मर्या॒धीरे॑भ्यः॒ सं ज॑भा॒राचि॑त्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑थेन । आ । ज॒भा॒र॒ । ए॒ना॒म् । ताम् । प॒था । इ॒त: । प्र । हि॒ण्म॒सि॒ । अधी॑र: । म॒र्या॒ऽधीरे॑भ्य: । सम् । ज॒भा॒र॒ ।अचि॑त्त्या ॥३१.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
अपथेना जभारैणां तां पथेतः प्र हिण्मसि। अधीरो मर्याधीरेभ्यः सं जभाराचित्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठअपथेन । आ । जभार । एनाम् । ताम् । पथा । इत: । प्र । हिण्मसि । अधीर: । मर्याऽधीरेभ्य: । सम् । जभार ।अचित्त्या ॥३१.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 31; मन्त्र » 10
विषय - गुप्त हिंसा के प्रयोग करने वालों का दमन।
भावार्थ -
जो दुष्ट पुरुष (एनां) इस कुकृत्य, करतूती को (अपथेन) बुरे मार्ग से (आ जभार) राष्ट्र में लाता है (तां) उस करतूत को हम (इतः पथा) इसी मार्ग से (प्र हिण्मसि) राष्ट्र से बाहर निकाल दें और प्रायः (अधीरः) मूर्ख, बेवकूफ लोग अपने (अचित्या) अज्ञान या मूर्खता से ऐसे बुरे काम (मर्या धीरेभ्यः) बुद्धिमान् लोगों के लिये (सं जभार) ला पटकते हैं। इसलिये राजा उन दुष्ट कार्यों को कभी न चलने दे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - शुक्र ऋषिः। कृत्यादूषणं देवता। १-१० अनुष्टुभः। ११ बुहती गर्भा। १२ पथ्याबृहती। द्वादशर्चं सूक्तम्॥
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