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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 18/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - ईर्ष्याविनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्याविनाशन सूक्त
यथा॒ भूमि॑र्मृ॒तम॑ना मृ॒तान्मृ॒तम॑नस्तरा। यथो॒त म॒म्रुषो॒ मन॑ ए॒वेर्ष्योर्मृ॒तं मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । भूमि॑: । मृ॒तऽम॑ना: । मृ॒तात् । मृ॒तम॑न:ऽतरा॑ । यथा॑ । उ॒त । म॒म्रुष॑: । मन॑: । ए॒व । ई॒र्ष्यो: । मृ॒तम् । मन॑: ॥१८.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा भूमिर्मृतमना मृतान्मृतमनस्तरा। यथोत मम्रुषो मन एवेर्ष्योर्मृतं मनः ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । भूमि: । मृतऽमना: । मृतात् । मृतमन:ऽतरा । यथा । उत । मम्रुष: । मन: । एव । ईर्ष्यो: । मृतम् । मन: ॥१८.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 18; मन्त्र » 2
विषय - ईर्ष्या का निदान और उपाय।
भावार्थ -
(यथा) जिस प्रकार (भूमिः मृतमनाः) यह भूमि, मिट्टी, मेरे दिलवाली अचेतन है और (मृतात्) यह मरे हुए मुर्दे से भी अधिक (मृतमनस्तरा) मुर्दादिल है (उत) और (यथा) जिस प्रकार (मम्रुषः मनः) मरे हुए मनुष्य का मन मर चुकता है (एवा) उसी प्रकार (ईर्ष्योः मनः मृतम्) ईर्ष्यालु पुरुष का भी मन, मनन शक्ति मर जाती है इसलिये ईष्यों नहीं करनी चाहिये।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अथर्वा ऋषिः। ईर्ष्याविनाशनं देवता। १,३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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