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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 1
अव॑ मा पाप्मन्त्सृज व॒शी सन्मृ॑डयासि नः। आ मा॑ भ॒द्रस्य॑ लो॒के पाप्म॑न्धे॒ह्यवि॑ह्रुतम् ॥
स्वर सहित पद पाठअव॑ । मा॒ । पा॒प्म॒न् । सृ॒ज॒ । व॒शी । सन् । मृ॒ड॒या॒सि॒ । न॒: । आ । मा॒ । भ॒द्रस्य॑ । लो॒के । पा॒प्म॒न् । धे॒हि॒ । अवि॑ऽह्रुतम् ॥२६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अव मा पाप्मन्त्सृज वशी सन्मृडयासि नः। आ मा भद्रस्य लोके पाप्मन्धेह्यविह्रुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठअव । मा । पाप्मन् । सृज । वशी । सन् । मृडयासि । न: । आ । मा । भद्रस्य । लोके । पाप्मन् । धेहि । अविऽह्रुतम् ॥२६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 1
विषय - पाप के भावों पर वश करना।
भावार्थ -
हे (पाप्मन्) पाप के भाव ! (मा अवसृज) मुझसे परे रह। तू (वशी सन्) वश में आकर (नः) हमारे (मृढयासि) सुख का कारण हो। हे पाप्मन् ! पाप के भाव (मां) मुझको (अविह्रुतम्) सरल, निष्कपट रूप में (भद्रस्य लोके) सुख, कल्याणमय लोक में (आ धेहि) रहने दे। मनुष्य सदा यही भावना करे कि पाप मुझसे परे रहें और मैं सदा उस पर वश करके रहूं। सरल, निष्कपट रूप से कल्याणमय लोक में निवास करूं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ब्रह्मा ऋषिः। पाम्पा देवता। १, ३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
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