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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    सूक्त - चातन देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यो अ॒स्य पा॒रे रज॑सः शु॒क्रो अ॒ग्निरजा॑यत। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्य । पा॒रे । रज॑स: । शु॒क्र: । अ॒ग्नि: । अजा॑यत । स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑: ॥३४.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्य पारे रजसः शुक्रो अग्निरजायत। स नः पर्षदति द्विषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्य । पारे । रजस: । शुक्र: । अग्नि: । अजायत । स: । न: । पर्षत् । अति । द्विष: ॥३४.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 5

    भावार्थ -

    (यः) जो (शुक्रः) ज्योतिःस्वरूप (अस्य) इस समस्त (रजसः पारे) रजः अर्थात् लोक समूह के पार या रजोनिर्मित प्राकृत संसार से परे (अग्निः*) ज्ञानमय उसमें लीन होनेवाला (अजायत) विद्यमान है (सः नः) वह हमें (द्विषः) द्वेष = अप्रीति के पदार्थ-कर्म-बन्धनों अर्थात् सकाम कर्मों के बन्धनों से (अति पर्षत्) पार करे, मुक्त करे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -

    चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ गायत्र्यः पंचर्चं सूक्तम्।

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