अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
यो रक्षां॑सि नि॒जूर्व॑त्य॒ग्निस्ति॒ग्मेन॑ शो॒चिषा॑। स नः॑ पर्ष॒दति॒ द्विषः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । रक्षां॑सि । नि॒ऽजूर्व॑ति । अ॒ग्नि: । ति॒ग्मेन॑ । शो॒चिषा॑ । स:। न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विष॑: ॥३४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रक्षांसि निजूर्वत्यग्निस्तिग्मेन शोचिषा। स नः पर्षदति द्विषः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । रक्षांसि । निऽजूर्वति । अग्नि: । तिग्मेन । शोचिषा । स:। न: । पर्षत् । अति । द्विष: ॥३४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
विषय - परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना।
भावार्थ -
(यः) जो ईश्वर (अग्निः) अग्नि, अग्रणी, नेता होकर अपने (तिग्मेन) तीक्ष्ण (शोचिषा) प्रताप तेज से (रक्षांसि) विघ्नकारियों अर्थात् काम क्रोध आदि को (निजूर्वति) भून डालता और लुंजा कर देता है। (सः न द्विषः अतिपर्षत्) वह हमें हमारे इन शत्रुओं से पार कर दे।
टिप्पणी -
(द्वि०) ‘वृषा शुक्रेण’ इति ऋ०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
चातन ऋषिः। अग्निर्देवता। १-५ गायत्र्यः पंचर्चं सूक्तम्।
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