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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 74/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - सामंनस्यम्, नाना देवताः, त्रिणामा
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - सांमनस्य सूक्त
सं॒ज्ञप॑नं वो॒ मन॒सोऽथो॑ संज्ञप॑नं हृ॒दः। अथो॒ भग॑स्य॒ यच्छ्रा॒न्तं तेन॒ संज्ञ॑पयामि वः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒म्ऽज्ञप॑नम् । व॒: । मन॑स: । अथो॒ इति॑ । स॒म्ऽज्ञप॑नम् । हृ॒द: । अथो॒ इति॑ । भग॑स्य । यत् । श्रा॒न्तम् । तेन॑ । सम्ऽज्ञ॑पयामि । व॒: ॥७४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
संज्ञपनं वो मनसोऽथो संज्ञपनं हृदः। अथो भगस्य यच्छ्रान्तं तेन संज्ञपयामि वः ॥
स्वर रहित पद पाठसम्ऽज्ञपनम् । व: । मनस: । अथो इति । सम्ऽज्ञपनम् । हृद: । अथो इति । भगस्य । यत् । श्रान्तम् । तेन । सम्ऽज्ञपयामि । व: ॥७४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 74; मन्त्र » 2
विषय - एकचित्त होकर रहने का उपदेश।
भावार्थ -
(वः) आप लोगों के (मनसः) चित्त को (सं-ज्ञपनम्) उत्तम रीति से ज्ञानसम्पन्न करता हूं। (अथो) और (हृदः) हृदयों को (संज्ञपनम्) उत्तम ज्ञानवान् करता हूं। (अथो) और (भगस्य) ऐश्वर्यशील राजा का (यत्) जो (श्रान्तम्) परिश्रम है (तेन) उससे भी (वः) आप लोगों को (सं-ज्ञपयामि) अच्छी तरह से परिचित कराता हूं। अर्थात् राजा के प्रतिनिधिगण प्रजा के चित्तों को शिक्षित करें, उनको राष्ट्र के हितों को विचारने का अवसर दें, हृदयों में एक दूसरे के प्रति सच्चे भाव उत्पन्न करें और प्रजाजन राजा के उत्तम भावों को जानें। इस प्रकार प्रजा शिक्षित, संगठित होकर राजा के अधीन रहे। मूर्ख और फुटैल प्रजा पर असत्य से राजा शासन न करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
अथर्वा ऋषिः। सांमनस्यं देवता। १, २ अनुष्टुभौ। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
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