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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 96

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 96/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिरा देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - चिकित्सा सूक्त

    मु॒ञ्चन्तु॑ मा शप॒थ्या॒दथो॑ वरु॒ण्यादु॒त। अथो॑ य॒मस्य॒ पड्वी॑शा॒द्विश्व॑स्माद्देवकिल्बि॒षात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मु॒ञ्चन्तु॑ । मा॒ । श॒प॒थ्या᳡त् । अथो॒ इति॑ । व॒रु॒ण्या᳡त् । उ॒त । अथो॒ इति॑ । य॒मस्य॑ । पड्वी॑शात् । विश्व॑स्मात् । दे॒व॒ऽकि॒ल्बि॒षात् ॥९६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुञ्चन्तु मा शपथ्यादथो वरुण्यादुत। अथो यमस्य पड्वीशाद्विश्वस्माद्देवकिल्बिषात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मुञ्चन्तु । मा । शपथ्यात् । अथो इति । वरुण्यात् । उत । अथो इति । यमस्य । पड्वीशात् । विश्वस्मात् । देवऽकिल्बिषात् ॥९६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 96; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    वे पापों को सन्तापित और दग्ध करनेवाली प्रजाएँ या व्यवस्थाएँ (मा) मुझको (शपथ्यात्) वाणी द्वारा दूसरे के प्रति दुर्वचन बोलने से उत्पन्न हुए अपराध (उत) और (वरुण्याद्) दमन करने योग्य झूठ बोलने आदि के अपराध से (मुञ्चन्तु) मुक्त करें। (अथो) और (यमस्य) नियन्ता राजा की (पड्वीशात्) डाली हुई पैरों में पड़ी बेड़ियों से और (विश्वस्मात्) सब प्रकार के (देव-किल्विषात्) देव अर्थात् राजा, विद्वान् और अधिकारीगण के प्रति किये अपराध से मुक्त करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वङ्गिरा ऋषिः। देवता १,२ वनस्पतिः,३ सोमः। १,२ अनुष्टुभः,३ विराण्नामगायत्री। तृचं सूक्तम्॥

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