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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 96/ मन्त्र 3
सूक्त - भृग्वङ्गिरा
देवता - सोमः
छन्दः - त्रिपदा विराड्गायत्री
सूक्तम् - चिकित्सा सूक्त
यच्चक्षु॑षा॒ मन॑सा॒ यच्च॑ वा॒चोपा॑रि॒म जाग्र॑तो॒ यत्स्व॒पन्तः॑। सोम॒स्तानि॑ स्व॒धया॑ नः पुनातु ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । चक्षु॑षा । मन॑सा । यत् । च॒ । वा॒चा । उ॒प॒ऽआ॒स्मि॒ । जाग्र॑त: । यत् । स्व॒पन्त॑: । सोम॑: । तानि॑ । स्व॒धया॑ । न॒: । पु॒ना॒तु॒ ॥९६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्चक्षुषा मनसा यच्च वाचोपारिम जाग्रतो यत्स्वपन्तः। सोमस्तानि स्वधया नः पुनातु ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । चक्षुषा । मनसा । यत् । च । वाचा । उपऽआस्मि । जाग्रत: । यत् । स्वपन्त: । सोम: । तानि । स्वधया । न: । पुनातु ॥९६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 96; मन्त्र » 3
विषय - पाप-मोचन की प्रार्थना।
भावार्थ -
(जाग्रतः) जागते हुए हम लोग (यत्) जो कुछ (चक्षुषा) आँख से और (यत् च मनसा) जो कुछ मन से और (वाचा) वाणी से (उपारिम) प्राप्त करें, और (यत् स्वपन्तः) जो कुछ सोते हुए भी मन आदि से संकल्प विकल्प करें या वाणी से बात कहें (तानि) उन सब ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों के गृहीत ज्ञानों और किये कामों को (नः) हमारा (सोमः) सब का प्रेरक आत्मा या विद्वान् पुरुष (स्वधा) अपनी धारणा, मनन, विवेक शक्ति से (पुनातु) पवित्र करे।
आंख आदि बाह्मेन्द्रिय, वाणी आदि कर्मेन्द्रिय और मन, अर्थात् अन्तःकरण इनके किये पर मनुष्य स्वयं अपनी बुद्धि से विवेक करे तो उसके आत्मा पर बुरा पाप संकल्प नहीं रहता।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वङ्गिरा ऋषिः। देवता १,२ वनस्पतिः,३ सोमः। १,२ अनुष्टुभः,३ विराण्नामगायत्री। तृचं सूक्तम्॥
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