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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 10
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    वि॒राजा॑न्ना॒द्यान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒ऽराजा॑ । अ॒न्न॒ऽअ॒द्या । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विराजान्नाद्यान्नमत्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विऽराजा । अन्नऽअद्या । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 10

    भावार्थ -
    (सः) वह व्रात्य प्रजापति (यद्) जब (ध्रुवान् दिशम् अनु वि-अचलत्) ध्रुवा दिशा की ओर चला (विष्णुः भूत्वा विराजम् अन्नादीम् कृत्वा) स्वयं विष्णु होकर विराट पृथ्वी को ही अन्न का भोक्ता बना कर (अनु-वि-अचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को जानता है वह (विराजा अन्नाद्या अन्नम् अति) विराज रूप अन्न की भोक्ती से अन्न का भोग करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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