अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
अ॒द्भिर॑न्ना॒दीभि॒रन्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒त्ऽभि:। अ॒न्न॒ऽअ॒दीभि॑: । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.६॥
स्वर रहित मन्त्र
अद्भिरन्नादीभिरन्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठअत्ऽभि:। अन्नऽअदीभि: । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
विषय - व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ -
(सः) वह व्रात्य प्रजापति (यत्) जब (प्रतीचीम् दिशम्) प्रतीची अर्थात् पश्चिम दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) चला। वह स्वयं (वरुणः राजा भूत्वा) सबके वरण करने योग्य, राजा होकर (अपः) समस्त आप्त प्रजाओं को (अन्नादीः) अन्न = राष्ट्र के भोग्य पदार्थों का भोक्ता (कृत्वा) बनाकर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को जानता है वह (अभिः अन्नादीभिः अन्नम् अत्ति) स्वयं भी अन्न आदि की भोक्ती आप्त प्रजाओं द्वारा स्वयं (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
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