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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    53

    अ॒द्भिर॑न्ना॒दीभि॒रन्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒त्ऽभि:। अ॒न्न॒ऽअ॒दीभि॑: । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अद्भिरन्नादीभिरन्नमत्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्ऽभि:। अन्नऽअदीभि: । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (अन्नादीभिः) जीवनरक्षक (अद्भिः) इन्द्रियों के साथ वह [अतिथि] (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षाकरता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥६॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समानहै ॥५, ६॥

    टिप्पणी

    ५, ६−(प्रतीचीम्)पश्चिमाम्। पश्चाद्भागस्थाम् (वरुणः) श्रेष्ठः (राजा) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्येच-कनिन्। ऐश्वर्यवान्। भूपालः (अपः) आपः=इन्द्रियाणि=आपनानि-निरु० १२।३७।कर्मसु व्यापकानीन्द्रियाणि (अन्नादीः) म० १। अन्नाद-ङीप्। जीवनरक्षिकाः (अद्भिः) इन्द्रियैः (अन्नादीभिः) जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    वरुण राजा अन्नादी: अपाः

    पदार्थ

    १. (सः) = वह व्रात्य (यत्) = जब (प्रतीचीं दिशं अनुव्यचलत्) = प्रत्याहार–इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करने की दिशा की ओर चला तो (वरुण:) = सब व्यसनों का निराकरण करनेवाला वह (राजा) = दीप्तजीवनवाला (भूत्वा) = होकर (अनुव्यचलत्) = अनुक्रमेण गतिवाला हुआ। २. (यः) = जो (एवं वेद) = इस तत्व को समझ लेता है कि निरव्यसन व दीप्तजीवनवाला बनने के लिए प्रत्याहार' आवश्यक है, वह (आपः) = रेत:कणों को (अनादी: कृत्वा) = अन्न खानेवाला बनाकर प्रत्याहार को सिद्ध करता है। यह (अन्नादीभिः अद्धिः अत्ति) = अन्न को खानेवाले रेत:कणों से ही अन्न को खाता है। उन्हीं सौम्य अन्नों का सेवन करता है जो रेत:कणों के रक्षण के लिए अनुकूलतावाले हों, अर्थात् यह उत्तेजक, राजस् भोजन से बचता है, राजस् भोजनों का सेवन नहीं करता।

    भावार्थ

    हम निर्व्यसन व दीप्तजीवनवाले बनकर इन्द्रियों को विषयों से व्यावृत्त करें। उन्हीं सात्त्विक भोजनों का सेवण करें जो रेत:कणों के रक्षण के लिए हितकर हों, न राजसों, न तामसों का।

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    भाषार्थ

    (यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता है वह (अन्नादीभिः) अन्नभोगी शारीरिक रस-रक्तों की दृष्टि से (अन्नम्) अन्न को (अत्ति) खाता है।

    टिप्पणी

    [प्राणाग्निहोत्री, शारीरिक रस-रक्त के स्वास्थ्य तथा परिपुष्टि की दृष्टि से, निज मुखाग्नि में, अन्नाहुतियां देता है।]

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः) वह व्रात्य प्रजापति (यत्) जब (प्रतीचीम् दिशम्) प्रतीची अर्थात् पश्चिम दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) चला। वह स्वयं (वरुणः राजा भूत्वा) सबके वरण करने योग्य, राजा होकर (अपः) समस्त आप्त प्रजाओं को (अन्नादीः) अन्न = राष्ट्र के भोग्य पदार्थों का भोक्ता (कृत्वा) बनाकर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार के व्रात्य प्रजापति के स्वरूप को जानता है वह (अभिः अन्नादीभिः अन्नम् अत्ति) स्वयं भी अन्न आदि की भोक्ती आप्त प्रजाओं द्वारा स्वयं (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The man who knows this eats food, taking, and thus making, the waters as the consumer of food for strength and smartness.

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    Translation

    With waters as enjoyers of food, he enjoys food, whoso knows it thus.

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    Translation

    He who knows this eats grains with waters consuming food.

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    Translation

    He who hath this knowledge of the Omnipresent God preserves life with organs as life-preservers.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५, ६−(प्रतीचीम्)पश्चिमाम्। पश्चाद्भागस्थाम् (वरुणः) श्रेष्ठः (राजा) राजृ दीप्तौ ऐश्वर्येच-कनिन्। ऐश्वर्यवान्। भूपालः (अपः) आपः=इन्द्रियाणि=आपनानि-निरु० १२।३७।कर्मसु व्यापकानीन्द्रियाणि (अन्नादीः) म० १। अन्नाद-ङीप्। जीवनरक्षिकाः (अद्भिः) इन्द्रियैः (अन्नादीभिः) जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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