अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 12
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - भुरिक् प्राजापत्या अनुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
34
ओष॑धीभिरन्ना॒दीभि॒रन्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठओष॑धीभि: । अ॒न्न॒ऽअ॒दीभि॑: । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.१२॥
स्वर रहित मन्त्र
ओषधीभिरन्नादीभिरन्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठओषधीभि: । अन्नऽअदीभि: । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद ॥१४.१२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
वह [अतिथि] (अन्नादीभिः) जीवनरक्षक (ओषधीभिः) ओषधियों से (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षाकरता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥१२॥
भावार्थ
मन्त्र १, २ के समान॥११, १२॥
टिप्पणी
११, १२−(पशून्)जीवजन्तून् (रुद्रः) रुङ् हिंसायाम्-क्विप् तुक् च+रुङ् हिंसायाम्-ड। शत्रुनाशकः (ओषधीः) यवव्रीह्यादिरूपाः (ओषधीभिः) यवव्रीह्यादिभिः (अन्नादीभिः)जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
विषय
रुद्र-अन्नादी ओषधी
पदार्थ
१. (स:) = वह (यत्) = जब (पशुं अनुव्यचलत्) = पशुओं के अनुकूल गतिवाला हुआ-पशुओं को किसी प्रकार की हानि न पहुँचानेवाला बनकर चला तब (रुद्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) = [रुत् द्र] रोगों को दूर भगानेवाला बनकर चला। किसी को हानि न पहुँचाना ही अपने को हानि से बचाने का उपाय है। (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि रोगों से बचने के लिए आवश्यक है कि हम किन्हीं भी पशुओं को हानि न पहुँचाएँ, वह (ओषधी: अन्नादीः कृत्वा) = ओषधियों को ही अन्नभक्षण करनेवाला बनाकर चलता है। दोष-दहन करनेवाले अनों का ही सेवन करता है [उष दाहे+धी] (अन्नादीभिः ओषधीभिः) = अन्नों को खानेवाली दोषदाधकरी स्थिति से ही वह अन्न खाता है।
भावार्थ
हम नीरोग बनने के लिए किसी भी पशु के अहिंसन का व्रत लें। उन्हीं भोजनों को खाएँ जो शरीर के दोषों का दहन करनेवाले हैं।
भाषार्थ
(यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता है और तदनुसार आचरण करता है, वह (अन्नादीभिः) अन्नभोगी (ओषधीभिः) शरीरस्थ ओषधिरूप तत्वों की दृष्टि से (अन्नम्, अत्ति) अन्न खाता है।
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः) वह प्रजापति व्रात्य (यत्) जब (पशून् अनुव्यचलत्) पशुओं की ओर चला तब (रूद्रः भूत्वा ओषधी अन्नादीः कृत्वा अनुव्यचलत्) वह स्वयं ‘रुद्र’ होकर और औषधियों को अन्न की भोक्ती बनाकर (अनुव्यचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जानलेता है वह (ओषधीभिः अन्नादीभिः अन्नम् अत्ति) ओषधिस्वरूप अन्न की भोक्कशक्तियों से अन्न का भोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The man who knows this eats food, taking, and thus making, herbs and trees as the consumer of food for health and strength.
Translation
With herbs as enjoyers of food he enjoys food, whose knows it thus.
Translation
He, who knows this eats grain with herbs consuming food.
Translation
He who hath this knowledge of the Omnipresent God preserves life with herbs as life-preservers.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११, १२−(पशून्)जीवजन्तून् (रुद्रः) रुङ् हिंसायाम्-क्विप् तुक् च+रुङ् हिंसायाम्-ड। शत्रुनाशकः (ओषधीः) यवव्रीह्यादिरूपाः (ओषधीभिः) यवव्रीह्यादिभिः (अन्नादीभिः)जीवनरक्षिकाभिः। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
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