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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - पुर उष्णिक् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    45

    स यद्दक्षि॑णां॒दिश॒मनु॒ व्यच॑लद्भू॒त्वानु॒व्यचल॒द्बल॑मन्ना॒दं कृ॒त्वा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स: । यत् । दक्षि॑णाम् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । इन्द्र॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । बल॑म् । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स यद्दक्षिणांदिशमनु व्यचलद्भूत्वानुव्यचलद्बलमन्नादं कृत्वा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स: । यत् । दक्षिणाम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । इन्द्र: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । बलम् । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (दक्षिणाम्) दक्षिण वा दाहिनी (दिशम् अनु) दिशा की ओर (व्यचलत्)विचरा, वह (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् (भूत्वा) होकर और (बलम्) बल [सामर्थ्य] को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्) लगातार चला गया ॥३॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समानहै ॥३, ४॥

    टिप्पणी

    ३, ४−(दक्षिणाम्)दक्षिणदेशस्थाम्। स्वशरीरस्य दक्षिणभागस्थाम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (बलम्)सामर्थ्यम् (बलेन) सामर्थ्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    इन्द्र+अन्नादं बलं

    पदार्थ

    १. (स:) = वह (यत्) = जब (दक्षिणां दिशं अनुष्यचलत्) = दक्षिणा [नैपुण्य] की दिशा की ओर चला तो (इन्द्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) = जितेन्द्रिय बनकर चला। जितेन्द्रिय बनकर ही हम दाक्षिण्य प्राप्त कर सकते हैं। २. दाक्षिण्य प्राप्त करनेवाला (यः) = जो भी व्यक्ति (एवं वेद) = इस तत्व को समझ लेता है कि जितेन्द्रियता से दाक्षिण्य प्राप्त किया जा सकता है, वह जितेन्द्रिय बनकर (बलं आन्नदं कृत्वा) = बल को अन्न खानेवाला करके आगे बढ़ता है। (अन्नादेन बलेन अन्नं अत्ति) = अन्न को खानेवाले बल से अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो बल को बढ़ानेवाला है। ये किसी भी स्वाद को भोजन का मापक नहीं बनाता।

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय बनकर दाक्षिण्य प्राप्त करें। बल के वर्धन के दृष्टिकोण से ही भोजन करें|

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    भाषार्थ

    (सः) वह प्राणाग्निहोत्री व्रात्य (यद्) जो (दक्षिणाम्) समृद्धिकारक (दिशम्) दिशा अर्थात् निर्देश या उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य करके (व्यचलत्) विशेषतया चला, वह मानो (इन्द्रः) विद्युत् रूप (भूत्वा) हो कर (अनु) तदनुसार (व्यचलत्) चलता रहा, (बलम्) शारीरिक बल को (अन्नादम्) अन्नभोजी (कृत्वा) करके।

    टिप्पणी

    [दक्षिणाम्="दक्षतेः समर्द्धयतिकर्मणः” (निरु० १।३।६), दक्ष वृद्धौ। इन्द्रः=विद्युत्। "वायुर्वेन्द्रो वान्तरिक्ष स्थान:"(निरु० ७।२।५)। बलम्="या च का च बलकृतिरिन्द्रकर्मैव तत्" (निरु० ७।३।१०)। प्राणाग्निहोत्री शारीरिक बल का दृष्टि से अन्न सेवन करता है। शरीरबलक्षय कारी अन्न का ग्रहण नहीं करता। इन्द्रः भूत्वा= विद्युत् के सदृश हो कर। इन्द्र का अर्थ जीवात्मा भी सम्भव है।]

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः) वह व्रात्य प्रजापति (यद्) जब (दक्षिणाम् दिशम्) दक्षिणा (दक्ष = बलकी) दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) चला तो (बलम् अन्नादं कृत्वा) बलको अन्नाद, भोक्ता बना कर (इन्द्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) इन्द्र, ऐश्वर्यवान्, सम्राट होकर चला। (यः एवं वेद बलेन अन्नादेन अन्नम् अत्ति) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जानता है वह बल रूप अन्न का भोक्ता होकर भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    When he moved into the southern direction, he became Indra, lord omnipotent, and thus moved. He made strength as the consumer of food.

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    Translation

    When he follows the course towards the southern quarter, he follows it becoming the rain-cloud (Indra) and making the Strength enjoyer of food.

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    Translation

    He, when walks towards southern region, walks becoming Indra, the mighty one and making the strength consumer of food.

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    Translation

    He, when he went away to the southern region, went away having become Lord, and having made strength a preserver of life.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३, ४−(दक्षिणाम्)दक्षिणदेशस्थाम्। स्वशरीरस्य दक्षिणभागस्थाम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (बलम्)सामर्थ्यम् (बलेन) सामर्थ्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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