अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 8
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
46
आहु॑त्यान्ना॒द्यान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआऽहु॑त्या । अ॒न्न॒ऽअ॒द्या । अन्न॑म् । अ॒त्ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ । ॥१४.८॥
स्वर रहित मन्त्र
आहुत्यान्नाद्यान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठआऽहुत्या । अन्नऽअद्या । अन्नम् । अत्ति । य: । एवम् । वेद । ॥१४.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
वह [अतिथि] (अन्नाद्या) जीवनरक्षक (आहुत्या) आहुति के साथ (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षाकरता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥८॥
भावार्थ
म० १, २ के समान ॥७, ८॥
टिप्पणी
७, ८−(उदीचीम्)उत्तराम्। वामभागवर्तमानाम् (सोमः) षु गतौ ऐश्वर्ये च-मन्। पुरुषार्थी (राजा)भूपतिः) (सप्तर्षिभिः) शीर्षण्यसप्तगोलकैः सह (हुते) होमे (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अन्नादीम्) म० ६। जीवनरक्षिकाम् (आहुत्या) यज्ञाग्नौ दानक्रियया (अन्नाद्या)जीवनरक्षिकया। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
विषय
सोमराजा+अनादी ज्ञानयज्ञाहुति
पदार्थ
१. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब उदीचीम् [उद् अञ्च] उन्नति की दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) = चला तो (सोमः) = सौम्य, शान्त व (राजा) = दीप्तजीवनवाला भूत्वा बनकर अनुव्यचलत क्रमशः आगे बढ़ा। सौम्यता व ज्ञानदीप्त जीवन में ही उन्नति सम्भव है। २. (यः एवं वेद) = जो इस तत्त्व को समझ लेता है कि उन्नति के लिए सौम्य, दीप्त जीवन की आवश्यकता है वह (सप्तर्षिभि:) = 'दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुख' रूप सप्तर्षियों से हते-किये जानेवाले ज्ञानयज्ञ में (आहुतिम्) = ज्ञेय विषयों की आहुति को (अन्नादी कृत्वा) = अन्न खानेवाली बनाकर आगे बढ़ता है। इस (अन्नाद्या आहुत्या) = अन्न को खानेवाली, विषयों की ज्ञानयज्ञ में दी जानेवाली आहुति से ही यह (अन्नं अत्ति) = अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो ज्ञानेन्द्रियों को अपने कार्य में सक्षम करे।
भावार्थ
हम सौम्य व ज्ञानदीप्त जीवनवाले बनते हुए जीवन में ऊर्ध्वगतिवाले हों। उन्हीं अन्नों का सेवन करें जो ज्ञानेन्द्रियों को ज्ञानप्राप्ति के कार्य में सक्षम करें।
भाषार्थ
(यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार के तथ्य को (वेद) जानता है, वह (अन्नाद्या) अन्न भोगिनी (आहुत्या) आहुति द्वारा (अन्नम्) अन्न को खाता है।
टिप्पणी
[अर्थात वह उस अन्न को खाता है जो कि आहुतिरूप है, और समझता है कि वह अपने शरीर में अग्निहोत्र करता है।]
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः) वह (यद्) जब (उदीचीम् दिशम् अनुव्यचलत्) उदीची दिशा को चला तो वह (सोमः राजा भूत्वा) सोम राजा होकर (आहुतिम् अनादीम् कृत्वा सप्तर्षिभिः हुतः) आहुति को पृथिवी के समस्त भोग्य पदार्थों का भोक्ती बनाकर स्वयं सप्तर्षियों द्वारा प्रदीप्त होकर (अमुव्य चलत्) चला। (आहुत्या अन्नाद्या) आहुति रूप अन्न की भोक्तृ शक्ति से वह (अन्नम् अत्ति) अन्न का भोग करता है (एः एवं वेद) जो व्रात्य के इस स्वरूप का साक्षात् करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
The man who knows this eats food, taking, and thus making, oblations as the receivers and consumers and also givers of food and strength.
Translation
With the offering as enjoyer of food, he enjoys food, whoso knows it thus.
Translation
He who possesses this knowledge eats grain with the oblation consuming food.
Translation
He, who hath this knowledge of the Omnipresent God preserves life with oblation as life-preserver.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७, ८−(उदीचीम्)उत्तराम्। वामभागवर्तमानाम् (सोमः) षु गतौ ऐश्वर्ये च-मन्। पुरुषार्थी (राजा)भूपतिः) (सप्तर्षिभिः) शीर्षण्यसप्तगोलकैः सह (हुते) होमे (आहुतिम्) दानक्रियाम् (अन्नादीम्) म० ६। जीवनरक्षिकाम् (आहुत्या) यज्ञाग्नौ दानक्रियया (अन्नाद्या)जीवनरक्षिकया। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥
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