अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - त्रिपदानुष्टुप्
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
98
स यत्प्राचीं॒दिश॒मनु॒ व्यच॑ल॒न्मारु॑तं॒ शर्धो॑ भू॒त्वानु॒व्यचल॒न्मनो॑ऽन्ना॒दं कृ॒त्वा॥
स्वर सहित पद पाठस: । यत् । प्राची॑म् । दिश॑म् । अनु॑ । वि॒ऽअच॑लत् । मारु॑तम् । शर्ध॑: । भू॒त्वा । अ॒नु॒ऽव्य᳡चलत् । मन॑: । अ॒न्न॒ऽअ॒दम् । कृ॒त्वा ॥१४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
स यत्प्राचींदिशमनु व्यचलन्मारुतं शर्धो भूत्वानुव्यचलन्मनोऽन्नादं कृत्वा॥
स्वर रहित पद पाठस: । यत् । प्राचीम् । दिशम् । अनु । विऽअचलत् । मारुतम् । शर्ध: । भूत्वा । अनुऽव्यचलत् । मन: । अन्नऽअदम् । कृत्वा ॥१४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथिके उपकार का उपदेश।
पदार्थ
(सः) वह [व्रात्यअतिथि] (यत्) जब (प्राचीम्) पूर्व वा सामनेवाली (दिशम् अनु) दिशा की ओर (व्यचलत्) विचरा, वह (मारुतम्) [शत्रुओं के मारनेवाले] शूरों का (शर्धः) बल (भूत्वा) होकर और (मनः) मन को (अन्नादम्) जीवनरक्षक (कृत्वा) करके (अनुव्यचलत्)लगातार चला गया ॥१॥
भावार्थ
ब्रह्मज्ञानी विद्वान्अतिथि अपने लगातार सदुपदेशों सत्कर्मों और सत्पराक्रमों से लोगों को बलवान् करकेसंसार की रक्षा करता है ॥१, २॥
टिप्पणी
१−(सः) व्रात्योऽतिथिः (यत्) यदा (प्राचीम्) पूर्वाम्। अभिमुखीभूताम् (दिशम्) दिशाम् (अनु) अनुलक्ष्य (व्यचलत्) विचरितवान् (मारुतम्) अ० १।२०।१। मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। मृङ्प्राणत्यागे-उति। मारयन्ति शत्रून् ते मरुतः। देवाः। मरुत्-अण्। शूराणामिदम् (शर्धः) बलम्-निघ० २।३। (भूत्वा) (अनुव्यचलत्) अनुक्रमेण विचरितवान् (मनः)अन्तःकरणम् (अन्नादम्) कॄवृजॄसिद्रुपन्यनिस्वपिभ्यो नित्। उ० ३।१०। अन जीवने-नप्रत्ययः, नित्। अद भक्षणे अवने च-इति शब्दस्तोममहानिधिः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१।अन्न+अद अवने रक्षणे-अण्। पदपाठे ह्रस्वत्वं पृषोदरादित्वात्। जीवनरक्षकम् (कृत्वा) विधाय ॥
विषय
मारुतं शर्ध:+अन्नादं मन:
पदार्थ
१. (स:) = वह व्रात्य (यत्) = जब (प्राचीं दिशं अनुव्यचलत्) = प्रगति [प्र अञ्च] की दिशा में क्रमशः आगे बढ़ा तो (मारुतं शर्धः) = प्राण-सम्बन्धी बल का पुञ्ज (भूत्वा) = होकर, अर्थात् प्राणसाधना द्वारा सबल बनकर (अनुव्यचलत्) = क्रमशः आगे बढ़ा। २. इसके साथ यह (मन: अन्नादं कृत्वा) = मन को अन्नाद बनाकर आगे बढ़ा। मन के दृष्टिकोण से यह भोजन खानेवाला हुआ। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार समझ लेता है कि मन की पवित्रता का निर्भर अन्न पर ही है, [जैसा अन्न वैसा मन, you are, what you eat, आहारशुद्धौ सत्वशुद्धिः] वह (अन्नादेन) = अन्न का ग्रहण करनेवाले (मनसा अन्नं अत्ति) = मन से अन्न खाता है। मन की अपवित्रता के कारणभूत अन्न को नहीं खाता।
भावार्थ
हम प्राणसाधना द्वारा प्राणशक्ति का वर्धन करें और मन की पवित्रता के दृष्टिकोण से सात्विक भोजन ही खाएँ, यही प्रगति की दिशा में आगे बढ़ने का उपाय है।
भाषार्थ
(सः) वह प्राणग्निहोत्री व्रात्य (यत्) जो (प्राचीम्) प्रगति को (दिशम्) दिशा अर्थात् निर्देश या उद्देश्य को (अनु) लक्ष्य कर के (व्यचलत्) विशेषतया चला, (मारुतम्) मानो मानसून वायु की (शर्धः) बल वाला (भूत्वा) हो कर (अनुव्यचलत्) निरन्तर चलता रहा, (मनः) मन को (अन्नादम्) अन्नभोजी (कृत्वा) कर के।
टिप्पणी
[सूक्त में प्राणाग्निहोत्री का वर्णन है। प्राणाग्निहोत्र का अभिप्राय है "शरीरवयवों, इन्द्रियों तथा मन आदि को देव जान कर उन के स्वास्थ्य तथा शक्तिवर्धन की दृष्टि से, उन के निमित्त भोजन में अन्नाहुतियां प्रदान करना"। इस से भोक्ता भोगवादी न बन कर आत्मवादी बन जाता है। अगले मन्त्रों में हुतः, आहुतिम् स्वधाकारम् स्वाहाकारम्, वषट्कारम्" आदि यज्ञसम्बन्धी शब्द सूचित करते हैं कि सूक्तोक्त अन्नभोग यज्ञरूप है, अग्निहोत्र रूप है। इस भावना को लक्ष्य कर के, मन्त्रों में "प्राचीम् दिशम्" -आदि प्रयोगों के अर्थ भी, आध्यात्मिक दृष्टि में किये गए हैं। प्राचीम् =प्र + अञ्च् (गतौ) = प्रगतिम्। दिशम् = निर्देश, उद्देश्य। सूक्त ६ भी, इसी प्रकार आध्यात्मिक उद्देश्य परक है। अनु=लक्ष्य करके, तथा निरन्तर। मारुतम् = मरुतः का अर्थ मानसून वायु भी वेदानुमोदित है। यथा "अपः समुद्राद्दिवमुद्वहन्ति दिवस्पृथिवीमभि ये सृजन्ति। ये अद्भिरीशाना मरुतश्चरन्ति ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥" (अथर्व० ४/२७/४); अर्थात् जो जल को समुद्र से द्युलोक की ओर उठा लिये जाते हैं, तथा द्युलोक से पृथिवी की ओर उसे प्रेषित करते हैं, तथा जो "मरुतः" जलों द्वारा शासन करते हैं, वे हमें कष्टों से बचाएं। शर्धः बलनाम (निघं० २।९)। मानसून वायुएँ बलपूर्वक१ चलती हैं। मनः अन्नादम् = शरीर में मुख्य शक्ति मन है। मन के स्वास्थ्य पर शरीर का स्वास्थ्य निर्भर है, तथा मन के पवित्र होने पर इन्द्रियों, शरीर, तथा आत्मा की पवित्रता अवलम्बित है। इस लिये मन को लक्ष्य करके सात्त्विक तथा पौष्टिक अन्न खाना चाहिये। यह समझना चाहिये कि मानो मन अन्न खा रहा है, अपने स्वास्थ्य और पुष्टि को ध्यान में रख कर। इस से भोक्ता तामसिक राजसिक तथा अपुष्टि कर अन्न का भोजन नहीं करता।] [१. मन्त्र में मानसिक बल की भावना है। इसलिये वल प्रदर्शनार्थ मरुतः का वर्णन है।]
विषय
व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ
(सः) वह व्रात्य प्रजापति (यत्) जब (प्राचीं दिशम्) प्राची दिशा की और (अनुवि-अचलत्) चला तो वह (मनः) मनको (अन्नादं) अन्न का भोक्ता (कृत्वा) बनाकर (मारुतम् शर्धः भूत्वा) मारुत, मरुत् सम्बन्धी बल स्वरूप होकर (अनुवि-अचलत्) चला। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार का तत्व साक्षात् कर लेता है वह (मनसा) मनोरूप (अन्नादेन) अन्न के भोक्तृ सामर्थ्य से (अन्नम्) अन्न पृथिवी के अन्नादि पदार्थ को (अत्ति) भोग करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
When Vratya moved into the eastern direction, he became the strength of the storm and thus moved. He made the mind as the consumer of food for strength.
Subject
Vratyah
Translation
When he follows the course towards the eastern quarter, he follows it becoming the powerful cloud-bearing wind and making the mind enjoyer of food.
Translation
He, when walks towards eastern region, walks having become the force of wind and making mind a consumer of food.
Translation
He, when he went away to the eastern region, went away having acquired the strength of enemy-killing heroes, and having made Mind a preserver of life.
Footnote
He: The learned guest, Vratya.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सः) व्रात्योऽतिथिः (यत्) यदा (प्राचीम्) पूर्वाम्। अभिमुखीभूताम् (दिशम्) दिशाम् (अनु) अनुलक्ष्य (व्यचलत्) विचरितवान् (मारुतम्) अ० १।२०।१। मृग्रोरुतिः। उ० १।९४। मृङ्प्राणत्यागे-उति। मारयन्ति शत्रून् ते मरुतः। देवाः। मरुत्-अण्। शूराणामिदम् (शर्धः) बलम्-निघ० २।३। (भूत्वा) (अनुव्यचलत्) अनुक्रमेण विचरितवान् (मनः)अन्तःकरणम् (अन्नादम्) कॄवृजॄसिद्रुपन्यनिस्वपिभ्यो नित्। उ० ३।१०। अन जीवने-नप्रत्ययः, नित्। अद भक्षणे अवने च-इति शब्दस्तोममहानिधिः। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१।अन्न+अद अवने रक्षणे-अण्। पदपाठे ह्रस्वत्वं पृषोदरादित्वात्। जीवनरक्षकम् (कृत्वा) विधाय ॥
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