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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 14
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - अक्षर पङ्क्ति छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    52

    तस्या॑मे॒वास्य॒तद्दे॒वता॑यां हु॒तं भ॑वति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्या॑म् । ए॒व । अ॒स्य॒ । तत् । दे॒वता॑याम् । हु॒तम् । भ॒व॒ति॒ । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१३.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यामेवास्यतद्देवतायां हुतं भवति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्याम् । एव । अस्य । तत् । देवतायाम् । हुतम् । भवति । य: । एवम् । वेद ॥१३.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 13; मन्त्र » 14
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथि और अनतिथि के विषय का उपदेश।

    पदार्थ

    (तस्याम् एव) (तत्) वह (हुतम्) दान (भवति) होता है, (यः) जो [विद्वान्] (एवम्) व्यापक [परमात्मा] को (वेद) जानता है ॥१४॥

    भावार्थ

    गृहस्थ को योग्य है किपूर्वोक्त प्रकार से छली-कपटी झूठे वेषधारी को दण्ड देवे और जो सत्यव्रतधारीब्रह्मज्ञानी अतिथि हो, उसका यथावत् आदर मान करे और सब प्रकार जल, अन्न, स्थानआदि से उसकी सेवा करे ॥१३, १४॥

    टिप्पणी

    १४−(तस्याम्) (एव) निश्चयेन (तत्) पूर्वोक्तम् (देवतायाम्) देवे। विदुषि पुरुषे (हुतम्) दानम् (भवति) (यः) अतिथिः (एवम्)व्यापकं परमात्मानम् (वेद) जानाति ॥

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    विषय

    अवात्य अतिथि का भी अनिरादर

    पदार्थ

    १. (अथ) = अब (यस्य गृहान्) = जिसके घर को (अव्रात्य:) = एक अव्रती (व्रात्यब्रुवः) = अपने को व्रती कहनेवाला, नाम (बिभ्रती) = केवल अतिथि के नाम को धारण करनेवाला (अतिथि: आगच्छेत) = अतिथि आ जाए तो क्या (एनं कर्षेत) = इसे खदेड़ दें-क्या इसका निरादर करके भगा दें? (न च एनं कर्षेत्) = नहीं, निश्चय से उसे निरादरित न करें, २. अपितु अतिथि की भावना से ही इसप्रकार अपनी पत्नी से कहे कि (अस्यै देवतायै उदकं याचामि) = इस देवता के लिए उदक [पानी] माँगता हूँ। (इमां देवतां वासये) = इस देवता को निवास के लिए स्थान देता हूँ। (इमाम्) = इस और (इमां देवताम्) = इस देवता को ही (परिवेवेष्यात) = भोजन परोसे। ऐसा करने पर (अस्यै) = इस गृहस्थ का (तत्) = वह भोजन परिवेषणादि कर्म (तस्यां एव देवतायाम्) = उस अतिथिदेव में ही (हुतं भवति) = दिया हुआ होता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार अतिथि के महत्त्व को समझता है, वह इस व्रात्यब्रुव को भी भोजन परोस ही देता है और अतिथियज्ञ को विच्छिन्न नहीं होने देता।

    भावार्थ

    अन्नती भी अतिथिरूपेण उपस्थित हो जाए तो उसका निरादर न करके उसे भी खानपान से तृप्त ही करें। अतिथियज्ञ को विच्छिन्न न होने दे।

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    भाषार्थ

    (यः) जो गृहस्थी (एवम्) इस प्रकार जानता तथा तदनुसार व्यवहार करता है (अस्य) इस गृहस्थी का अन्न, (तस्याम्, एव) अतिथिनिष्ठ-देवतापन में ही (हुतम्) अतिथि यज्ञ में आहुति रूप (भवति) होता है।

    टिप्पणी

    [अतिथि को देवता कहते हैं। यथा “अतिथि देवो भव" (तैत्तिरीय उप० बल्ली० १ । अनुवाक ११)। अतिथि देव की सेवा, अतिथि यज्ञ है। अतिथि को दिया अन्न, अतिथि यज्ञ में, अतिथि में जो देवत्व है उस के प्रति आहुत होता है। अतः अभ्यागत की सेवा करना गृहस्थी का धर्म है। विद्वान् तथा व्रात्य अतिथि की सेवा तो गृहस्थी स्वयं करे, परन्तु अव्रात्य अतिथि की सेवा भृत्यों द्वारा कराएं, अतिथि यज्ञ की भावना बनी रहे। अतिथि यज्ञ में अतिथि, देवता है]

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    विषय

    अतिथि यज्ञ का फल।

    भावार्थ

    (अस्यै देवतायै) इस देवता के निमित्त (उदकं याचामि) जल स्वीकार करने की प्रार्थना करता हूं। (इमां देवतां वासये) इस देवता को मैं अपने घर में निवास देता हूं। (इमाम् इमाम् देवतां परिवेवेष्मि) इस देवता को मैं भोजन आदि परोसता हूं (इति) इस प्रकार भावना से ही (एनं) उसके भी (परिवेविष्यात्) सेवा शुश्रूषा करे और भोजनादि दे। (यः एवं वेद) जो इस प्रकार का तत्व जानता है (तस्याम् एक देवतायाम्) उसही देवता के निमित्त (अस्य) इस गृहस्थ का (तत् हुतम्) वह त्याग उसे प्राप्त (भवति) हो जाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    २ प्र० साम्नी उष्णिक्, १ द्वि० ३ द्वि० प्राजापत्यानुष्टुप्, २-४ (प्र०) आसुरी गायत्री, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी बृहती, ५ प्र० त्रिपदा निचृद् गायत्री, ५ द्वि० द्विपदा विराड् गायत्री, ६ प्राजापत्या पंक्तिः, ७ आसुरी जगती, ८ सतः पंक्तिः, ९ अक्षरपंक्तिः। चतुर्दशर्चं त्रयोदशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    To that pious entity the service is offered, and one who knows this has his service accepted thus to the divinity.

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    Translation

    To that very deity that becomes duly offered, whoso knows it thus.

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    Translation

    To that pious entity becomes acceptable the offered things of the man who knows this.

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    Translation

    The sacrifice (Yajna) of the man who serves a learned guest, who possesses this knowledge pf God, achieves success.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १४−(तस्याम्) (एव) निश्चयेन (तत्) पूर्वोक्तम् (देवतायाम्) देवे। विदुषि पुरुषे (हुतम्) दानम् (भवति) (यः) अतिथिः (एवम्)व्यापकं परमात्मानम् (वेद) जानाति ॥

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