अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 13/ मन्त्र 11
ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - प्राजापत्या पङ्क्ति
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
36
अथ॒यस्याव्रा॑त्यो व्रात्यब्रु॒वो ना॑मबिभ्र॒त्यति॑थिर्गृ॒हाना॒गच्छे॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठअथ॑ । यस्य॑ । अव्रा॑त्य: । व्रा॒त्य॒ऽध्रु॒व: । ना॒म॒ऽबि॒भ्र॒ती । अति॑थि: । गृ॒हान् । आ॒ऽगच्छे॑त् ॥१३.११॥
स्वर रहित मन्त्र
अथयस्याव्रात्यो व्रात्यब्रुवो नामबिभ्रत्यतिथिर्गृहानागच्छेत् ॥
स्वर रहित पद पाठअथ । यस्य । अव्रात्य: । व्रात्यऽध्रुव: । नामऽबिभ्रती । अतिथि: । गृहान् । आऽगच्छेत् ॥१३.११॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अतिथि और अनतिथि के विषय का उपदेश।
पदार्थ
(अथ) और फिर (अव्रात्यः) अव्रात्य [कुव्रतधारी] (व्रात्यब्रुवः) अपने को व्रात्य [सत्यव्रतधारी] बताता हुआ, (नामबिभ्रती) केवल नाम धारण करता हुआ (अतिथिः) अतिथि (यस्य) जिस [गृहस्थ] के (गृहान्) घरों में (आगच्छेत्) आजावे ॥११॥
भावार्थ
यदि कोई छली-कपटीमिथ्यावादी मनुष्य अपने को सत्यव्रतधारी अतिथि बताकर आजावे, गृहस्थ उस पाखण्डीधूर्त को अवश्य निरादर करके निकाल देवे, और अगले दो मन्त्रों के अनुसार वर्तावकरे ॥११, १२॥
टिप्पणी
११−(अथ) अपि च (यस्य)गृहस्थस्य (अव्रात्यः) असत्यव्रतधारी (व्रात्यब्रुवः) व्रात्य+ब्रूञ् व्यक्तायांवाचि-क। आत्मानं व्रात्यं कथयन् (नामबिभ्रती) नाम+डुभृञ् धारणपोषणयोः-शतृ।इयाडियाजी-कराणामुपसंख्यानम्। वा० पा० ७।१।३९। ईकारादेशः सुविभक्तेः। नामधारयन्।अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अवात्य अतिथि का भी अनिरादर
पदार्थ
१. (अथ) = अब (यस्य गृहान्) = जिसके घर को (अव्रात्य:) = एक अव्रती (व्रात्यब्रुवः) = अपने को व्रती कहनेवाला, नाम (बिभ्रती) = केवल अतिथि के नाम को धारण करनेवाला (अतिथि: आगच्छेत) = अतिथि आ जाए तो क्या (एनं कर्षेत) = इसे खदेड़ दें-क्या इसका निरादर करके भगा दें? (न च एनं कर्षेत्) = नहीं, निश्चय से उसे निरादरित न करें, २. अपितु अतिथि की भावना से ही इसप्रकार अपनी पत्नी से कहे कि (अस्यै देवतायै उदकं याचामि) = इस देवता के लिए उदक [पानी] माँगता हूँ। (इमां देवतां वासये) = इस देवता को निवास के लिए स्थान देता हूँ। (इमाम्) = इस और (इमां देवताम्) = इस देवता को ही (परिवेवेष्यात) = भोजन परोसे। ऐसा करने पर (अस्यै) = इस गृहस्थ का (तत्) = वह भोजन परिवेषणादि कर्म (तस्यां एव देवतायाम्) = उस अतिथिदेव में ही (हुतं भवति) = दिया हुआ होता है। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार अतिथि के महत्त्व को समझता है, वह इस व्रात्यब्रुव को भी भोजन परोस ही देता है और अतिथियज्ञ को विच्छिन्न नहीं होने देता।
भावार्थ
अन्नती भी अतिथिरूपेण उपस्थित हो जाए तो उसका निरादर न करके उसे भी खानपान से तृप्त ही करें। अतिथियज्ञ को विच्छिन्न न होने दे।
भाषार्थ
(अथ) तथा (अव्रात्यः) जो व्रती और प्रजाजन हितकारी नहीं, (व्रात्यब्रुवः) परन्तु जो अपने को व्रात्य कहता है, (नाम, बिभ्रती१) जो केवल व्रात्यनामधारी है, (अतिथिः) ऐसा अतिथि (यस्य) जिस गृहस्थी के (गृहान्) घरों में (आ गच्छेत्) आ जाय-
टिप्पणी
[१. "बिभ्रती, अतिथि देवता"।]
विषय
अतिथि यज्ञ का फल।
भावार्थ
(अथ) और (यस्य) जिसके (गृहान्) घर पर (अव्रात्यः) व्रात्य न होता हुआ भी (व्रात्यब्रुवः) अपने को व्रात्य बतलाता हुआ केवल (नामविभ्रती*) नामभर धारण करने वाला (अतिथिः) अतिथि (आगच्छेत्) आ जाय तो फिर (कर्षेत् एनम्*) क्या उसका अनादर करे ? (न च एनं कर्षेत्) ना। उसका भी अनादर न करे। परन्तु—
टिप्पणी
‘नामविभ्रत' इति ह्विटनिकामितः पाठः। ‘नाम—विभ्रती’ अत्र श्याडियाजीकाराणामुपसंख्यानमिति सोरिकारादेशश्छान्दसः। ‘कर्षेदेनम्’ इति पूर्व प्रश्नाभिप्रायेण पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
२ प्र० साम्नी उष्णिक्, १ द्वि० ३ द्वि० प्राजापत्यानुष्टुप्, २-४ (प्र०) आसुरी गायत्री, २ द्वि०, ४ द्वि० साम्नी बृहती, ५ प्र० त्रिपदा निचृद् गायत्री, ५ द्वि० द्विपदा विराड् गायत्री, ६ प्राजापत्या पंक्तिः, ७ आसुरी जगती, ८ सतः पंक्तिः, ९ अक्षरपंक्तिः। चतुर्दशर्चं त्रयोदशं पर्यायसूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vratya-Prajapati daivatam
Meaning
Should an Avratya, i.e., a guest without discipline and dedication, Vratya in name only and yet calling himself a Vratya, come to a householder...
Translation
Now, he, to whose homes a non-vrátya (un-vow-observing), posting himself as ? Vratya, bearing only the name (of Vratya), comes as a guest.
Translation
He to whose house ‘non-vratya calling himself a vratya and Vratya in name only comes as guest.
Translation
Now he, to whose house an ignorant person, calling himself a scholar, and one in name only, comes as a guest.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
११−(अथ) अपि च (यस्य)गृहस्थस्य (अव्रात्यः) असत्यव्रतधारी (व्रात्यब्रुवः) व्रात्य+ब्रूञ् व्यक्तायांवाचि-क। आत्मानं व्रात्यं कथयन् (नामबिभ्रती) नाम+डुभृञ् धारणपोषणयोः-शतृ।इयाडियाजी-कराणामुपसंख्यानम्। वा० पा० ७।१।३९। ईकारादेशः सुविभक्तेः। नामधारयन्।अन्यत् पूर्ववत् ॥
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