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अथर्ववेद के काण्ड - 15 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदासुरी गायत्री छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
    39

    बले॑नान्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बले॑न । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बलेनान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बलेन । अन्नऽअदेन । अन्नम् । य: । एवम् । वेद ॥१४.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अतिथिके उपकार का उपदेश।

    पदार्थ

    (अन्नादेन) जीवनरक्षक (बलेन) बल से वह [अतिथि] (अन्नम्) जीवन की (अत्ति) रक्षा करता है, (यः) जो (एवम्) व्यापक परमात्मा को (वेद) जानता है ॥४॥३, ४−(दक्षिणाम्)दक्षिणदेशस्थाम्। स्वशरीरस्य दक्षिणभागस्थाम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (बलम्)सामर्थ्यम् (बलेन) सामर्थ्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

    भावार्थ

    मन्त्र १, २ के समानहै ॥३, ४॥

    टिप्पणी

    ३, ४−(दक्षिणाम्)दक्षिणदेशस्थाम्। स्वशरीरस्य दक्षिणभागस्थाम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (बलम्)सामर्थ्यम् (बलेन) सामर्थ्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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    विषय

    इन्द्र+अन्नादं बलं

    पदार्थ

    १. (स:) = वह (यत्) = जब (दक्षिणां दिशं अनुष्यचलत्) = दक्षिणा [नैपुण्य] की दिशा की ओर चला तो (इन्द्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) = जितेन्द्रिय बनकर चला। जितेन्द्रिय बनकर ही हम दाक्षिण्य प्राप्त कर सकते हैं। २. दाक्षिण्य प्राप्त करनेवाला (यः) = जो भी व्यक्ति (एवं वेद) = इस तत्व को समझ लेता है कि जितेन्द्रियता से दाक्षिण्य प्राप्त किया जा सकता है, वह जितेन्द्रिय बनकर (बलं आन्नदं कृत्वा) = बल को अन्न खानेवाला करके आगे बढ़ता है। (अन्नादेन बलेन अन्नं अत्ति) = अन्न को खानेवाले बल से अन्न को खाता है। उसी अन्न को खाता है जो बल को बढ़ानेवाला है। ये किसी भी स्वाद को भोजन का मापक नहीं बनाता।

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय बनकर दाक्षिण्य प्राप्त करें। बल के वर्धन के दृष्टिकोण से ही भोजन करें|

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    भाषार्थ

    (यः) जो व्यक्ति (एवम्) इस प्रकार तथ्य को (वेद) जान लेता है वह (बलेन, अन्नादेन) बल को अन्नभोगी मान कर (अन्नम्) बलदायक अन्न का (अत्ति) भोजन करता है।

    टिप्पणी

    [अर्थात् मानो शारीरिक बल द्वारा निज वृद्धि के लिये, बलदायक भोजन करता है]

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    विषय

    व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।

    भावार्थ

    (सः) वह व्रात्य प्रजापति (यद्) जब (दक्षिणाम् दिशम्) दक्षिणा (दक्ष = बलकी) दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) चला तो (बलम् अन्नादं कृत्वा) बलको अन्नाद, भोक्ता बना कर (इन्द्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) इन्द्र, ऐश्वर्यवान्, सम्राट होकर चला। (यः एवं वेद बलेन अन्नादेन अन्नम् अत्ति) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जानता है वह बल रूप अन्न का भोक्ता होकर भोग करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vratya-Prajapati daivatam

    Meaning

    The man who knows this eats food, taking, and thus making, strength as the consumer of food (and thus he gains strength in consequence).

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    Translation

    With the strength as enjoyer of food he enjoys food, whoso knows it thus.

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    Translation

    He who knows this eats grain with strength consuming food.

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    Translation

    He who hath this knowledge of the Omnipresent God preserves life with strength as life-preserver.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३, ४−(दक्षिणाम्)दक्षिणदेशस्थाम्। स्वशरीरस्य दक्षिणभागस्थाम् (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् (बलम्)सामर्थ्यम् (बलेन) सामर्थ्येन। अन्यत् पूर्ववत्-म० १, २ ॥

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