अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य
देवता - द्विपदासुरी गायत्री
छन्दः - अथर्वा
सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त
बले॑नान्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑ ॥
स्वर सहित पद पाठबले॑न । अ॒न्न॒ऽअ॒देन॑ । अन्न॑म् । य: । ए॒वम् । वेद॑ ॥१४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
बलेनान्नादेनान्नमत्ति य एवं वेद ॥
स्वर रहित पद पाठबलेन । अन्नऽअदेन । अन्नम् । य: । एवम् । वेद ॥१४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
विषय - व्रात्य अन्नाद के नानारूप और नाना ऐश्वर्य भोग।
भावार्थ -
(सः) वह व्रात्य प्रजापति (यद्) जब (दक्षिणाम् दिशम्) दक्षिणा (दक्ष = बलकी) दिशा की ओर (अनुव्यचलत्) चला तो (बलम् अन्नादं कृत्वा) बलको अन्नाद, भोक्ता बना कर (इन्द्रः भूत्वा अनुव्यचलत्) इन्द्र, ऐश्वर्यवान्, सम्राट होकर चला। (यः एवं वेद बलेन अन्नादेन अन्नम् अत्ति) जो व्रात्य के इस प्रकार के स्वरूप को जानता है वह बल रूप अन्न का भोक्ता होकर भोग करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १ प्र० त्रिपदाऽनुष्टुप्, १-१२ द्वि० द्विपदा आसुरी गायत्री, [ ६-९ द्वि० भुरिक् प्राजापत्यानुष्टुप् ], २ प्र०, ५ प्र० परोष्णिक्, ३ प्र० अनुष्टुप्, ४ प्र० प्रस्तार पंक्तिः, ६ प्र० स्वराड् गायत्री, ७ प्र० ८ प्र० आर्ची पंक्तिः, १० प्र० भुरिङ् नागी गायत्री, ११ प्र० प्राजापत्या त्रिष्टुप। चतुर्विंशत्यृचं चतुर्दशं पर्यायसूक्तम्॥
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