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अथर्ववेद > काण्ड 15 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 15/ सूक्त 17/ मन्त्र 9
    सूक्त - अध्यात्म अथवा व्रात्य देवता - द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - अध्यात्म प्रकरण सूक्त

    तस्य॒व्रात्य॑स्य। यदा॑दि॒त्यम॑भिसंवि॒शन्त्य॑मावा॒स्यां चै॒व तत्पौ॑र्णमा॒सीं च॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तस्य॑ । व्रात्य॑स्य । यत् । आ॒दि॒त्यम् । अ॒भि॒ऽसं॒वि॒शन्ति॑ । अ॒मा॒ऽवा॒स्या᳡म् । च॒ । ए॒व । तत् । पौ॒र्ण॒ऽमा॒सीम् । च॒॥१७.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तस्यव्रात्यस्य। यदादित्यमभिसंविशन्त्यमावास्यां चैव तत्पौर्णमासीं च॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तस्य । व्रात्यस्य । यत् । आदित्यम् । अभिऽसंविशन्ति । अमाऽवास्याम् । च । एव । तत् । पौर्णऽमासीम् । च॥१७.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 15; सूक्त » 17; मन्त्र » 9

    भावार्थ -
    (यत्) जिस प्रकार (देवाः आदित्यम्) देव = किरणें सूर्य में प्रवेश करती हैं और जिस प्रकार (अमावास्याम्) अमावास्या में सब चन्द्रः कलाएं लुप्त हो जाती हैं या सूर्य और चन्द्र एक साथ रहते हैं और (पौर्णमासींम् च) जिस प्रकार पौर्णमासी में समस्त चन्द्र कलाएं एकत्र हो जाती है (तत्) उसी प्रकार ये समस्त देवगण मुमुक्षु ज्ञानी लोग (तस्य व्रात्यस्य) उस व्रात्य प्रजापति के (आदित्यम्) आदित्य के समान प्रकाशमान स्वरूप में (अभि सं विशन्ति) प्रवेश करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - १, ५ प्राजापत्योष्णिहौ, २ आसुर्यनुष्टुभौ, ३ याजुषी पंक्तिः ४ साम्न्युष्णिक्, ६ याजुषीत्रिष्टुप्, ८ त्रिपदा प्रतिष्ठार्ची पंक्तिः, ९ द्विपदा साम्नीत्रिष्टुप्, १० सामन्यनुष्टुप्। दशर्चं सप्तदशं सूक्तम्॥

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