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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    अ॑र॒सं कृ॒त्रिमं॑ ना॒दम॑रसाः स॒प्त विस्र॑सः। अपे॒तो ज॑ङ्गि॒डाम॑ति॒मिषु॒मस्ते॑व शातय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒र॒सम्। कृ॒त्रिम॑म्। ना॒दम्। अ॒र॒साः। स॒प्त। विऽस्र॑सः। अप॑। इ॒तः। ज॒ङ्गि॒डः॒। अम॑तिम्। इषु॑म्। अस्ता॑ऽइव। शा॒त॒य॒ ॥३४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अरसं कृत्रिमं नादमरसाः सप्त विस्रसः। अपेतो जङ्गिडामतिमिषुमस्तेव शातय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अरसम्। कृत्रिमम्। नादम्। अरसाः। सप्त। विऽस्रसः। अप। इतः। जङ्गिडः। अमतिम्। इषुम्। अस्ताऽइव। शातय ॥३४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे (जंगिड) शत्रुनाशक ! तू (कृत्रिमं) कृत्रिम साधनों द्वारा उत्पन्न किये (नादम्) शंख के विस्फोटक अस्त्रों के नादको (अरसम्) निर्बल कर देता है अथवा तू शत्रु के (कृत्रिमं नादम् अरसं) कृत्रिम नाद अर्थात् सम्पन्न या समृद्ध रूप को या परिवर्धित आडम्बर को निर्बल कर देता है। तेरे सामने (सप्त) सातों (विस्रसः) विविध दिशाओं से आने वाले शत्रु (अरसाः) निर्बल होजाते हैं। (अमतिम्) अदम्य शत्रु को भी (इतः) यहां से (अस्ता इषुम् इव) धनुर्धारी जिस प्रकार बाण को दूर फेंक देता है उसी प्रकार (अप शातय) दूर मार भगा।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। वनस्पतिलिंगोक्तो वा देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥

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