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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    उ॒ग्र इत्ते॑ वनस्पत॒ इन्द्र॑ ओ॒ज्मान॒मा द॑धौ। अमी॑वाः॒ सर्वा॑श्चा॒तयं॑ ज॒हि रक्षां॑स्योषधे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒ग्रः। इत्। ते॒। व॒न॒स्प॒ते॒। इन्द्रः॑। ओ॒ज्मान॑म्। आ। द॒धौ॒। अमी॑वाः। सर्वाः॑। चा॒तय॑न्। ज॒हि। रक्षां॑सि। ओ॒ष॒धे॒ ॥३४.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उग्र इत्ते वनस्पत इन्द्र ओज्मानमा दधौ। अमीवाः सर्वाश्चातयं जहि रक्षांस्योषधे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उग्रः। इत्। ते। वनस्पते। इन्द्रः। ओज्मानम्। आ। दधौ। अमीवाः। सर्वाः। चातयन्। जहि। रक्षांसि। ओषधे ॥३४.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 9

    भावार्थ -
    (उग्रः इन्द्रः) उग्र, भयंकर, बलशाली (इन्द्रः) इन्द्र राजा, हे (वनस्पत) महा वृक्ष के समान प्रजा पालक। (ते) तुझे (ओज्मानम्) बल (दधौ) प्रदान करता है। तू (सर्वान्) समस्त (अमीवाः) पीड़ा कारी शत्रुओं को (चातयन्) विनाश करता हुआ, हे (ओषधे) दुष्टों के तापकारिन् ! रोगनाशक ओषधि के समान ! तू भी (रक्षांसि) विघ्नकारियों को (जहि) विनाश कर, मार, दण्ड दे।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। वनस्पतिलिंगोक्तो वा देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥

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