अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
कृ॑त्या॒दूष॑ण ए॒वायमथो॑ अराति॒दूष॑णः। अथो॒ सह॑स्वाञ्जङ्गि॒डः प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒त्या॒ऽदूष॑णः। ए॒व। अ॒यम्। अथो॒ इति॑। अ॒रा॒ति॒ऽदूष॑णः। अथो॒ इति॑। सह॑स्वान्। ज॒ङ्गि॒डः। प्र। नः॒। आयूं॑षि। ता॒रि॒ष॒त् ॥३४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
कृत्यादूषण एवायमथो अरातिदूषणः। अथो सहस्वाञ्जङ्गिडः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठकृत्याऽदूषणः। एव। अयम्। अथो इति। अरातिऽदूषणः। अथो इति। सहस्वान्। जङ्गिडः। प्र। नः। आयूंषि। तारिषत् ॥३४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
विषय - जंगिड़ नामक रक्षक का वर्णन।
भावार्थ -
(अयम्) यह (कृत्यादूषणः) घातक गुप्त प्रयोगों को नाश करने वाला (अथो) और (अरातिदूषणः) शत्रुओं का नाश करने वाला है। (अथो) और (जंगिडः) शत्रुओं को निगलने में समर्थ वीर राजा (सहस्वान्) शक्तिशाली होकर (नः आयूंषि) हमारे जीवनों को (प्रतारिषत्) बढ़ावे।
टिप्पणी -
(चः) ‘तर्षित्' इति क्वचित्। (प्र० द्वि०) ‘कृत्या दूषण वायमथोदा०’ इति पैप्पसं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। वनस्पतिलिंगोक्तो वा देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥
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