अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
स ज॑ङ्गि॒डस्य॑ महि॒मा परि॑ णः पातु वि॒श्वतः॑। विष्क॑न्धं॒ येन॑ सा॒सह॒ संस्क॑न्ध॒मोज॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठसः। ज॒ङ्गि॒डस्य॑। म॒हिमा॑। परि॑। नः॒। पा॒तु॒। वि॒श्वतः॑। विऽस्क॑न्धम्। येन॑। स॒सह॑। सम्ऽस्क॑न्धम्। ओजः॑। ओज॑सा ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स जङ्गिडस्य महिमा परि णः पातु विश्वतः। विष्कन्धं येन सासह संस्कन्धमोज ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठसः। जङ्गिडस्य। महिमा। परि। नः। पातु। विश्वतः। विऽस्कन्धम्। येन। ससह। सम्ऽस्कन्धम्। ओजः। ओजसा ॥३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
विषय - जंगिड़ नामक रक्षक का वर्णन।
भावार्थ -
(सः) वह (जङ्गिडस्य) पूर्वोक्त शत्रुविजयी राजा का (महिमा) महान् सामर्थ्य है जो (नः) हमें (विश्वतः परिपातु) सब ओर से रक्षा करे। (येन) जिस सामर्थ्य से (विष्कन्धं) सेना के पृथक् पृथक् निवेशों या दस्तों को और (संस्कन्धम् ओजः) शत्रु सेना के संयुक्त सेनाबल के वीर्य को भी अपने (ओजसा) वीर्य से (सासह) धर दबाता है।
टिप्पणी -
(तृ०) ‘ससहे’ इति क्वचित्। ‘सासहा’ (च०) ‘आजोजसा’ इति पैप्प० सं०। ‘येन सहसं—’ इति सायणाभिमतः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अंगिरा ऋषिः। वनस्पतिलिंगोक्तो वा देवता। अनुष्टुभः। दशर्चं सूक्तम्॥
इस भाष्य को एडिट करें